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रद करें डाउनलोड शेर

बचपन पर शेर

कला और कलाकार की कल्पना-शक्ति

बहुत बलवान होती है। कल्पना-शक्ति के सहारे ही कलाकार नई दुनिया की सैर करता है और गुज़रे हुए वक़्त की यादों को भी शिद्दत के साथ अपनी रचना में बयान करता है। बचपन के सुंदर और कोमल एहसास,उसकी मासूमियत और सच्चे-पन को अपनी रचना में चित्रित करना आसान नहीं होता। लेकिन शायरी जैसी विधा में बचपन के इस एहसास की तर्जुमानी भी की गई है। शायरी या कोई भी रचनात्मक शैली की अपनी सीमा है। इसलिए भाषा की सतह पर बचपन के एहसाह को बयान करने में शायरी की अपनी लाचारी भी है ।बचपन के एहसास से ओत-प्रोत शायरी हमारी इसी नाचारी का बदल है।

फ़रिश्ते कर उन के जिस्म पर ख़ुश्बू लगाते हैं

वो बच्चे रेल के डिब्बों में जो झाड़ू लगाते हैं

मुनव्वर राना

खिलौनों की दुकानो रास्ता दो

मिरे बच्चे गुज़रना चाहते हैं

अज्ञात

भूक चेहरों पे लिए चाँद से प्यारे बच्चे

बेचते फिरते हैं गलियों में ग़ुबारे बच्चे

बेदिल हैदरी

कौन कहे मा'सूम हमारा बचपन था

खेल में भी तो आधा आधा आँगन था

शारिक़ कैफ़ी

हमारे मुँह पे उस ने आइने से धूप तक फेंकी

अभी तक हम समझ कर उस को बच्चा छोड़ देते हैं

मोहम्मद आज़म

हम तो बचपन में भी अकेले थे

सिर्फ़ दिल की गली में खेले थे

जावेद अख़्तर

उड़ने दो परिंदों को अभी शोख़ हवा में

फिर लौट के बचपन के ज़माने नहीं आते

बशीर बद्र

दुआएँ याद करा दी गई थीं बचपन में

सो ज़ख़्म खाते रहे और दुआ दिए गए हम

इफ़्तिख़ार आरिफ़

अब तक हमारी उम्र का बचपन नहीं गया

घर से चले थे जेब के पैसे गिरा दिए

नश्तर ख़ानक़ाही

बड़ी हसरत से इंसाँ बचपने को याद करता है

ये फल पक कर दोबारा चाहता है ख़ाम हो जाए

नुशूर वाहिदी

जिस के लिए बच्चा रोया था और पोंछे थे आँसू बाबा ने

वो बच्चा अब भी ज़िंदा है वो महँगा खिलौना टूट गया

महशर बदायुनी

किताबों से निकल कर तितलियाँ ग़ज़लें सुनाती हैं

टिफ़िन रखती है मेरी माँ तो बस्ता मुस्कुराता है

सिराज फ़ैसल ख़ान

'जमाल' हर शहर से है प्यारा वो शहर मुझ को

जहाँ से देखा था पहली बार आसमान मैं ने

जमाल एहसानी

मेरे रोने का जिस में क़िस्सा है

उम्र का बेहतरीन हिस्सा है

जोश मलीहाबादी

ये ज़िंदगी कुछ भी हो मगर अपने लिए तो

कुछ भी नहीं बच्चों की शरारत के अलावा

अब्बास ताबिश

असीर-ए-पंजा-ए-अहद-ए-शबाब कर के मुझे

कहाँ गया मिरा बचपन ख़राब कर के मुझे

मुज़्तर ख़ैराबादी

मोहल्ले वाले मेरे कार-ए-बे-मसरफ़ पे हँसते हैं

मैं बच्चों के लिए गलियों में ग़ुब्बारे बनाता हूँ

सलीम अहमद

मैं बचपन में खिलौने तोड़ता था

मिरे अंजाम की वो इब्तिदा थी

जावेद अख़्तर

अपने बच्चों को मैं बातों में लगा लेता हूँ

जब भी आवाज़ लगाता है खिलौने वाला

राशिद राही

फ़क़त माल-ओ-ज़र-ए-दीवार-ओ-दर अच्छा नहीं लगता

जहाँ बच्चे नहीं होते वो घर अच्छा नहीं लगता

अब्बास ताबिश

बच्चों के छोटे हाथों को चाँद सितारे छूने दो

चार किताबें पढ़ कर ये भी हम जैसे हो जाएँगे

निदा फ़ाज़ली

मेरा बचपन भी साथ ले आया

गाँव से जब भी गया कोई

कैफ़ी आज़मी

बचपन में हम ही थे या था और कोई

वहशत सी होने लगती है यादों से

अब्दुल अहद साज़

चुप-चाप बैठे रहते हैं कुछ बोलते नहीं

बच्चे बिगड़ गए हैं बहुत देख-भाल से

आदिल मंसूरी

इक खिलौना जोगी से खो गया था बचपन में

ढूँढता फिरा उस को वो नगर नगर तन्हा

जावेद अख़्तर

सातों आलम सर करने के बा'द इक दिन की छुट्टी ले कर

घर में चिड़ियों के गाने पर बच्चों की हैरानी देखो

शुजा ख़ावर

एक हाथी एक राजा एक रानी के बग़ैर

नींद बच्चों को नहीं आती कहानी के बग़ैर

मक़सूद बस्तवी

Jashn-e-Rekhta | 13-14-15 December 2024 - Jawaharlal Nehru Stadium , Gate No. 1, New Delhi

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