वहशत पर शेर
वहशत पर ये शायरी आप
के लिए आशिक़ की शख़्सियत के एक दिल-चस्प पहलू का हैरान-कुन बयान साबित होगी। आप देखेंगे कि आशिक़ जुनून और दीवानगी की आख़िरी हद पर पहुँच कर किया करता है। और किस तरह वो वहशत करने के लिए सहराओं में निकल पड़ता है।
इश्क़ मुझ को नहीं वहशत ही सही
मेरी वहशत तिरी शोहरत ही सही
घर की वहशत से लरज़ता हूँ मगर जाने क्यूँ
शाम होती है तो घर जाने को जी चाहता है
लोग कहते हैं कि तुम से ही मोहब्बत है मुझे
तुम जो कहते हो कि वहशत है तो वहशत होगी
बचपन में हम ही थे या था और कोई
वहशत सी होने लगती है यादों से
ऐसे डरे हुए हैं ज़माने की चाल से
घर में भी पाँव रखते हैं हम तो सँभाल कर
जागता हूँ मैं एक अकेला दुनिया सोती है
कितनी वहशत हिज्र की लम्बी रात में होती है
कुछ बे-ठिकाना करती रहीं हिजरतें मुदाम
कुछ मेरी वहशतों ने मुझे दर-ब-दर किया
मेरे माथे पे उभर आते थे वहशत के नुक़ूश
मेरी मिट्टी किसी सहरा से उठाई गई थी
अपने हमराह जो आते हो इधर से पहले
दश्त पड़ता है मियाँ इश्क़ में घर से पहले
दयार-ए-नूर में तीरा-शबों का साथी हो
कोई तो हो जो मिरी वहशतों का साथी हो
फिर वही लम्बी दो-पहरें हैं फिर वही दिल की हालत है
बाहर कितना सन्नाटा है अंदर कितनी वहशत है
सौदा-ए-इश्क़ और है वहशत कुछ और शय
मजनूँ का कोई दोस्त फ़साना-निगार था
वो जो इक शर्त थी वहशत की उठा दी गई क्या
मेरी बस्ती किसी सहरा में बसा दी गई क्या
वहशतें इश्क़ और मजबूरी
क्या किसी ख़ास इम्तिहान में हूँ
वो काम रह के करना पड़ा शहर में हमें
मजनूँ को जिस के वास्ते वीराना चाहिए
वो जिस के नाम की निस्बत से रौशनी था वजूद
खटक रहा है वही आफ़्ताब आँखों में
बस्ती बस्ती पर्बत पर्बत वहशत की है धूप 'ज़िया'
चारों जानिब वीरानी है दिल का इक वीराना क्या
हो सके क्या अपनी वहशत का इलाज
मेरे कूचे में भी सहरा चाहिए
होती है तेरे नाम से वहशत कभी कभी
बरहम हुई है यूँ भी तबीअत कभी कभी
वहशत का ये आलम कि पस-ए-चाक गरेबाँ
रंजिश है बहारों से उलझते हैं ख़िज़ाँ से
इश्क़ पर फ़ाएज़ हूँ औरों की तरह लेकिन मुझे
वस्ल का लपका नहीं है हिज्र से वहशत नहीं
मजनूँ से ये कहना कि मिरे शहर में आ जाए
वहशत के लिए एक बयाबान अभी है
वहशत-ए-दिल ने किया है वो बयाबाँ पैदा
सैकड़ों कोस नहीं सूरत-ए-इंसाँ पैदा
न हम वहशत में अपने घर से निकले
न सहरा अपनी वीरानी से निकला
इन दिनों अपनी भी वहशत का अजब आलम है
घर में हम दश्त-ओ-बयाबान उठा लाए हैं
इक दिन दुख की शिद्दत कम पड़ जाती है
कैसी भी हो वहशत कम पड़ जाती है
जिस्म थकता नहीं चलने से कि वहशत का सफ़र
ख़्वाब में नक़्ल-ए-मकानी की तरह होता है
अंधेरे कमरे में रक़्स करती रहेगी वहशत
और एक कोने में पारसाई पड़ी रहेगी
मुझे बचा ले मिरे यार सोज़-ए-इमशब से
कि इक सितारा-ए-वहशत जबीं से गुज़रेगा
वो जो इक बात है जो तुझ को बताई न गई
वो जो इक राज़ है जो खुल न सका वहशत है
पहले तमाम शहर को सहरा बनाएँगे
फिर वहशतों की रेत पे सोया करेंगे हम
'शाद' इतनी बढ़ गई हैं मेरे दिल की वहशतें
अब जुनूँ में दश्त और घर एक जैसे हो गए
फ़स्ल-ए-गुल आते ही वहशत हो गई
फिर वही अपनी तबीअत हो गई
हम तिरे साए में कुछ देर ठहरते कैसे
हम को जब धूप से वहशत नहीं करनी आई
जाने ये तू है तिरा ग़म है कि दिल की वहशत
जानिब-ए-कोह-ए-निदा कोई बुलाता है मुझे
ये खचा-खच भरी हुई वहशत
बे-बसों को बसों से ख़ौफ़ आया
वाए क़िस्मत सबब इस का भी ये वहशत ठहरी
दर-ओ-दीवार में रह कर भी मैं बे-घर निकला