शाहिद कमाल
ग़ज़ल 38
अशआर 15
जब डूब के मरना है तो क्या सोच रहे हो
इन झील सी आँखों में उतर क्यूँ नहीं जाते
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ये कैसा दश्त-ए-तहय्युर है याँ से कूच करो
हमारे पाँव से रफ़्तार खींचता है कोई
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तू मेरे साथ नहीं है तो सोचता हूँ मैं
कि अब तो तुझ से बिछड़ने का कोई डर भी नहीं
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शाख़-ए-मिज़्गाँ पे महकने लगे ज़ख़्मों के गुलाब
पिछले मौसम की मुलाक़ात की बू ज़िंदा है
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