अब्दुल अहद साज़
ग़ज़ल 55
नज़्म 28
अशआर 44
घर वाले मुझे घर पर देख के ख़ुश हैं और वो क्या जानें
मैं ने अपना घर अपने मस्कन से अलग कर रक्खा है
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नेक गुज़रे मिरी शब सिद्क़-ए-बदन से तेरे
ग़म नहीं राब्ता-ए-सुब्ह जो काज़िब ठहरे
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पस-मंज़र में 'फ़ीड' हुए जाते हैं इंसानी किरदार
फ़ोकस में रफ़्ता रफ़्ता शैतान उभरता आता है
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रात है लोग घर में बैठे हैं
दफ़्तर-आलूदा ओ दुकान-ज़दा
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