गर्मी पर शेर
दोपहर, ज़िन्दगी के कठिन
लम्हों और उन से जुड़ी परेशानियों का अलामत होने के साथ कई दूसरे इशारों के तौर पर भी प्रचालित है। सूरज का सर के बिलकुल ऊपर होना शायरों ने अलग-अलग ढंग से पेश किया है। दोपहर शायरी ज़िन्दगी की धूप-छाँव से उपजी वह शायरी है जो हर लम्हा सच की आँच को सहने और वक़्त से आँखें मिला कर जीने का हौसला देती है। आइये एक नज़र धूप शायरी भीः
दोपहर की धूप में मेरे बुलाने के लिए
वो तिरा कोठे पे नंगे पाँव आना याद है
गर्मी लगी तो ख़ुद से अलग हो के सो गए
सर्दी लगी तो ख़ुद को दोबारा पहन लिया
शहर क्या देखें कि हर मंज़र में जाले पड़ गए
ऐसी गर्मी है कि पीले फूल काले पड़ गए
ये सुब्ह की सफ़ेदियाँ ये दोपहर की ज़र्दियाँ
अब आईने में देखता हूँ मैं कहाँ चला गया
ये धूप तो हर रुख़ से परेशान करेगी
क्यूँ ढूँड रहे हो किसी दीवार का साया
शदीद गर्मी में कैसे निकले वो फूल-चेहरा
सो अपने रस्ते में धूप दीवार हो रही है
फिर वही लम्बी दो-पहरें हैं फिर वही दिल की हालत है
बाहर कितना सन्नाटा है अंदर कितनी वहशत है
आते ही जो तुम मेरे गले लग गए वल्लाह
उस वक़्त तो इस गर्मी ने सब मात की गर्मी
पड़ जाएँ मिरे जिस्म पे लाख आबले 'अकबर'
पढ़ कर जो कोई फूँक दे अप्रैल मई जून
सूरज सर पे आ पहुँचा
गर्मी है या रोज़-ए-जज़ा
बंद आँखें करूँ और ख़्वाब तुम्हारे देखूँ
तपती गर्मी में भी वादी के नज़ारे देखूँ
सारा दिन तपते सूरज की गर्मी में जलते रहे
ठंडी ठंडी हवा फिर चली सो रहो सो रहो
तू जून की गर्मी से न घबरा कि जहाँ में
ये लू तो हमेशा न रही है न रहेगी
गर्मी बहुत है आज खुला रख मकान को
उस की गली से रात को पुर्वाई आएगी
धूप की गरमी से ईंटें पक गईं फल पक गए
इक हमारा जिस्म था अख़्तर जो कच्चा रह गया
गर्मी ने कुछ आग और भी सीने में लगाई
हर तौर ग़रज़ आप से मिलना ही कम अच्छा
उतारो बदन से ये मोटे लिबास
नहीं देखतीं गर्मियाँ आ गईं
गर्मी सी ये गर्मी है
माँग रहे हैं लोग पनाह
क्यूँ तिरी थोड़ी सी गर्मी सीं पिघल जावे है जाँ
क्या तू नें समझा है आशिक़ इस क़दर है मोम का
गर्मियों भर मिरे कमरे में पड़ा रहता है
देख कर रुख़ मुझे सूरज का ये घर लेना था
क़यामत में बड़ी गर्मी पड़ेगी हज़रत-ए-ज़ाहिद
यहीं से बादा-ए-गुल-रंग में दामन को तर कर लो
तअ'ल्लुक़ात की गर्मी न ए'तिबार की धूप
झुलस रही है ज़माने को इंतिशार की धूप
पिघलते देख के सूरज की गर्मी
अभी मासूम किरनें रो गई हैं
गर्मी जो आई घर का हवा-दान खुल गया
साहिल पे जब गया तो हर इंसान खुल गया
गर्मी में तेरे कूचा-नशीनों के वास्ते
पंखे हैं क़ुदसियों के परों के बहिश्त में
सितम-ए-गर्मी-ए-सहरा मुझे मालूम न था
ख़ुश्क हो जाएगा दरिया मुझे मालूम न था