ग़ुलाम मुर्तज़ा राही
ग़ज़ल 38
अशआर 49
किसी ने भेज कर काग़ज़ की कश्ती
बुलाया है समुंदर पार मुझ को
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जैसे कोई काट रहा है जाल मिरा
जैसे उड़ने वाला कोई परिंदा है
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न जाने क़ैद में हूँ या हिफ़ाज़त में किसी की
खिंची है हर तरफ़ इक चार दीवारी सी कोई
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मैं तिरे वास्ते आईना था
अपनी सूरत को तरस अब क्या है
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