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शरीफ़ कुंजाही

शरीफ़ कुंजाही

ग़ज़ल 8

नज़्म 1

 

अशआर 6

ख़ंदा-ए-मौज मिरी तिश्ना-लबी ने जाना

रेत का तपता हुआ देख के ज़र्रा कोई

ग़ुनूदा राहों को तक तक के सोगवार हो

तिरे क़दम ही मुसाफ़िर इन्हें जगाएँगे

तू जून की गर्मी से घबरा कि जहाँ में

ये लू तो हमेशा रही है रहेगी

तवील रात भी आख़िर को ख़त्म होती है

'शरीफ़' हम अँधेरों से मात खाएँगे

बस्तियाँ तू ने ख़लाओं में बसाईं भी तो क्या

दिल के वीरानों को देख इन को भी कुछ आबाद कर

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