ग़ालिब अयाज़ के शेर
भले ही छाँव न दे आसरा तो देता है
ये आरज़ू का शजर है ख़िज़ाँ-रसीदा सही
तमाम उम्र उसे चाहना न था मुमकिन
कभी कभी तो वो इस दिल पे बार बन के रहा
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हवा के होंट खुलें साअत-ए-कलाम तो आए
ये रेत जैसा बदन आँधियों के काम तो आए
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तुम्हारे दर से उठाए गए मलाल नहीं
वहाँ तो छोड़ के आए हैं हम ग़ुबार अपना
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हम उस के जब्र का क़िस्सा तमाम चाहते हैं
और उस की तेग़ हमारा ज़वाल चाहती है
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फिर यही रुत हो ऐन मुमकिन है
पर तिरा इंतिज़ार हो कि न हो
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ज़िंदगानी में सभी रंग थे महरूमी के
तुझ को देखा तो मैं एहसास-ए-ज़ियाँ से निकला
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हुआ करेगा हर इक लफ़्ज़ मुश्क-बार अपना
अभी सुकूँ से किए जाओ इंतिज़ार अपना
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