इमाम आज़म के शेर
तेरी ख़ुशबू से मोअत्तर है ज़माना सारा
कैसे मुमकिन है वो ख़ुशबू भी गुलाबों में मिले
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दुनिया की इक रीत पुरानी, मिलना और बिछड़ना है
एक ज़माना बीत गया है तुम कब मिलने आओगे
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आस्था का रंग आ जाए अगर माहौल में
एक राखी ज़िंदगी का रुख़ बदल सकती है आज
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टैग : रक्षाबन्धन
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किसी की बात कोई बद-गुमाँ न समझेगा
ज़मीं का दर्द कभी आसमाँ न समझेगा
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गेसू ओ रुख़्सार की बातें करें
आओ मिल कर प्यार की बातें करें
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हर तरफ़ इक जंग का माहौल है 'आज़म' यहाँ
आदमी अब घर के भी अंदर सलामत है कहाँ
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उन के रुख़्सत का वो लम्हा मुझे यूँ लगता है
वक़्त नाराज़ हुआ दिन भी ढला हो जैसे
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जो मज़े आज तिरे ग़म के अज़ाबों में मिले
ऐसी लज़्ज़त कहाँ साक़ी की शराबों में मिले
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संकट के दिन थे तो साए भी मुझ से कतराते थे
सुख के दिन आए तो देखो दुनिया मेरे साथ हुई
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मौसम सूखा सूखा सा था लेकिन ये क्या बात हुई
केवल उस के कमरे में ही रात गए बरसात हुई
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