ख़ुर्शीद तलब के शेर
हवा से कह दो कि कुछ देर को ठहर जाए
ख़जिल हमारी इबारत हवा से होती है
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मिरी मुश्किल मिरी मुश्किल नहीं है
वसीला तेरी आसानी का मैं हूँ
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अज़ीज़ो आओ अब इक अल-विदाई जश्न कर लें
कि इस के ब'अद इक लम्बा सफ़र अफ़सोस का है
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आज दरिया में अजब शोर अजब हलचल है
किस की कश्ती ने क़दम आब-ए-रवाँ पर रक्खा
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हमें हर वक़्त ये एहसास दामन-गीर रहता है
पड़े हैं ढेर सारे काम और मोहलत ज़रा सी है
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टैग : वक़्त
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रोज़ दीवार में चुन देता हूँ मैं अपनी अना
रोज़ वो तोड़ के दीवार निकल आती है
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टैग : घमंड
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हर एक अहद ने लिक्खा है अपना नामा-ए-शौक़
किसी ने ख़ूँ से लिखा है किसी ने आँसू से
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'तलब' बड़ी ही अज़िय्यत का काम होता है
बिखरते टूटते रिश्तों का बोझ ढोना भी
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कभी दिमाग़ को ख़ातिर में हम ने लाया नहीं
हम अहल-ए-दिल थे हमेशा रहे ख़सारे में
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कि हम बने ही न थे एक दूसरे के लिए
अब इस यक़ीन को जीना हयात करते हुए
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हवा तो है ही मुख़ालिफ़ मुझे डराता है क्या
हवा से पूछ के कोई दिए जलाता है क्या
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टैग : हवा
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उस ने आ कर हाथ माथे पर रखा
और मिनटों में बुख़ार उड़ता हुआ
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आइए बीच की दीवार गिरा देते हैं
कब से इक मसअला बे-कार में उलझा हुआ है
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सब एक धुँद लिए फिर रहे हैं आँखों में
किसी के चेहरे पे माज़ी न हाल देखता हूँ
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बहुत नुक़सान होता है
ज़ियादा होशियारी में
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ख़ुदा ने बख़्शा है क्या ज़र्फ़ मोम-बत्ती को
पिघलते रहना मगर सारी रात चुप रहना
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सब ने देखा और सब ख़ामोश थे
एक सूफ़ी का मज़ार उड़ता हुआ
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ज़मीनें तंग हुई जा रही हैं दिल की तरह
हम अब मकान नहीं मक़बरा बनाते हैं
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कोई चराग़ जलाता नहीं सलीक़े से
मगर सभी को शिकायत हवा से होती है
कहीं भी जाएँ किसी शहर में सुकूनत हो
हम अपनी तर्ज़ की आब ओ हवा बनाते हैं
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ज़िंदगी में जो तुम्हें ख़ुद से ज़ियादा थे अज़ीज़
उन से मिलने क्या कभी जाते हो क़ब्रिस्तान भी
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