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महात्मा गाँधी
उद्धरण 5
मेरी फ़िक्र आप न करें, फ़िक्र अपने लिए किया जाए। कहाँ तक आगे बढ़ते हैं और मुल्क की भलाई कहाँ तक हो सकती है? इसका ख़्याल रखा जाए। आख़िर में सब इन्सानों को मरना है। जिसका जन्म हुआ है उसे मौत से छुटकारा नहीं मिल सकता। ऐसी मौत का ख़ौफ़ क्या और ग़म भी क्या करना? मेरा ख़्याल है कि हम सब के लिए मौत एक लुत्फ़-अंदोज़ दोस्त है। हमेशा मुबारकबाद की मुस्तहक़ है। क्योंकि मौत ही कई तरह के दुखों से छुटकारा दिलाती है।
हरी जन सेवक, 25 जनवरी 1948
मैं नागरी रस्म-उल-ख़त की मुख़ालिफ़त नहीं करता। जैसा कि हर एक रस्म-उल-ख़त में इस्लाह की ज़रूरत है, इसी तरह नागरी रस्म-उल-ख़त में लम्बी इस्लाह की गुंजाइश है। जब नागरी ज़बान वाले उर्दू रस्म-उल-ख़त की मुख़ालिफ़त करते हैं तब इसमें मुझे हसद की, तअस्सुब की बू आती है। इसमें कोई शक नहीं कि मैं हिन्दुस्तानी के हक़ में हूँ। मैं मानता हूँ कि नागरी और उर्दू रस्म-उल-ख़त में से आख़िर-कार जीत नागरी रस्म-उल-ख़त की ही होगी। इसी तरह रस्म-उल-ख़त का ख़्याल छोड़ कर भाषा का ख़्याल करें। तो जीत हिन्दुस्तानी की ही होगी। क्योंकि संस्कृत लिबास वाली हिन्दी बनावटी है। और हिन्दुस्तानी क़ुदरती है। इसी तरह फ़ारसी लिबास वाली उर्दू ग़ैर-क़ुदरती और बनावटी है। मेरी हिन्दुस्तानी में संस्कृत और फ़ारसी के लफ़्ज़ बहुत कम आते हैं और वो सब समझ लेते हैं। नाम का झगड़ा मुझे बिलकुल पसंद नहीं है। नाम कुछ भी हो लेकिन काम ऐसा हो कि जिससे सारे मुल्क का, देश का भला हो। इसमें किसी नाम से नफ़रत नहीं होनी चाहिए। और सारे जहाँ से अच्छा हिन्दोस्ताँ हमारा’’ 'इक़बाल के इस वचन को सुन के किस हिन्दुस्तानी का दिल नहीं उछलेगा? अगर ना उछले तो मैं उसे कम-नसीब मानूँगा। इक़बाल के इस वचन को में हिन्दी कहूँ। हिंदुस्तानी कहूँ या उर्दू? कौन कह सकता है कि इसमें हिन्दुस्तानी भाषा नहीं भरी पड़ी है। इसमें मिठास नहीं है। ख़्याल की बुलंदी नहीं है। भले ही इस ख़्याल के साथ मैं आज अकेला माना जाऊँ मगर ये साफ़ है कि संस्कृत के लिबास में हिन्दी और फ़ारसी के लिबास में उर्दू की जीत नहीं होने वाली है। जीत तो हिन्दुस्तानी की ही हो सकती है जब हम अंदरूनी हसद को भूल जाएँगे तभी हम इस बनावटी झगड़े को भूल जाऐंगे। इससे शर्मिंदा होंगे।
हरी जन सेवक, 25 जनवरी 1948
गाँधी जी ने देखा कि कुछ लोग प्रार्थना के मैदान में भी तम्बाकू-नोशी करते हैं प्रार्थना सभा में बोलते हुए उन्होंने कहा, बहुत से ईसाई सिगरेट पीते हैं। मगर आज तक किसी ने चर्च में जाकर सीगरेट नहीं पिया। मुस्लमान भी मस्जिद में दाख़िल होते वक़्त सिगरेट फेंक देते हैं। मस्जिद में कोई सिगरेट नहीं पी सकता। प्रार्थना का मैदान भी चर्च, मस्जिद, मंदिर, इबादत-गाह की हैसियत रखता है। अच्छे अख़्लाक़ का ये तक़ाज़ा है कि प्रार्थना के मैदान में तम्बाकू-नोशी ना की जाए। और सब लोग शुरू से आख़िर तक ख़ामोशी रखें।
नई दिल्ली, 24 जुलाई 1947
मेरे पास आज कई दुखी लोग आए थे। वो पाकिस्तान से आए हुए लोगों के नुमाइंदे थे। उन्होंने अपने दुख की कहानी सुनाई मुझसे कहा कि आप हम में दिलचस्पी नहीं लेते। लेकिन उन्हें क्या पता कि मैं आज यहाँ किस लिए पड़ा हूँ मगर आज मेरी हालत देन है मेरी आज कौन सुनता है? एक ज़माना था जब लोग में जो कहूँ वही करते थे। सब के सब करते थे ये मेरा दावे नहीं है मगर काफ़ी लोग मेरी बात मानते थे। तब मैं अदम-ए-तशद्दुद की फ़ौज का कमाण्डर था। आज मेरा जंगल में रोना समझो। मगर धर्मराज ने कहा था कि अकेले रह जाने पर भी जो ठीक समझो वो करो । सो मैं कर रहा हूँ। जो हुकूमत चलाते हैं वो मेरे दोस्त हैं मगर जो कुछ मैं कहता हूँ उसके मुताबिक़ सब चलते हैं ऐसी बात नहीं है। वो क्यों चलें? मैं नहीं चाहता कि दोस्ती की ख़ातिर मेरी बात मानी जाए। दिल को लगे तभी मानी जाए अगर सब लोग मेरे कहने के मुताबिक़ चलें तो आज हिन्दोस्तान में जो हुआ और हो रहा है वो हो नहीं सकता था।
प्रार्थना सभा 5 जनवरी 1948
एशिया के लोगों का ख़्याल धर्म-मज़हब की तरफ़ ज़ियादा रहता है। और आजकल के यूरोप वालों का साईंस-विज्ञान की तरफ़ दुनिया के सब बड़े-बड़े मज़हब जिनके नाम-लेवा मौजूद हैं और लगभग वो सब जिनके नाम-लेवा नहीं रहे, एशिया ही में पैदा हुए। एशिया वालों की सारी ज़िंदगी पर मज़हब की छाप रहती है। हिंदू-मुस्लमान, यहूदी, पारसी बौधि। कन्फ्युशियस और रोमन, कैथोलिक ईसाईयों के भी रहन-सहन, खान-पीन, आचार-विचार सब पर धर्म की छाप रहती है। हर मज़हब वाला यही चाहता है कि मेरा मज़हब ज़िंदगी के हर काम में मुझे रास्ता दिखाए, हर मज़हब अपने मुल्क और ज़माने के मुताबिक़ इस फ़र्ज़ को पूरा करने की कोशिश भी करता है। आहिस्ता-आहिस्ता हर मज़हब में कुछ लोग पैदा हो जाते हैं। जो इन ही बातों में बाल की खाल निकालते रहते हैं। छोटी-छोटी बातों पर बेजा ज़ोर देते हैं। उनका मज़हब कट्टर और बे-जान बनने लगता है। इसकी लचक जाती रहती है। वो ज़रूरत के मुताबिक़ अपने रस्म-ओ-रिवाज को भी बदल नहीं सकता। वो निकम्मी ग़ैर-ज़रूरी चीज़ों में चिपक जाता है। ज़रूरी और काम की चीज़ों को भूल जाता है। यहाँ तक कि जो रास्ता नेकी और भलाई का रास्ता था वही बुराई और बर्बादी का रास्ता बन जाता है। अक्सर इन्ही गै़र-ज़रूरी बातों में मज़हब-मज़हब में फ़र्क़ और लड़ाई-झगड़े होते हैं।
हरी जन सेवक 18 जनवरी 1948
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