मयकश अकबराबादी के शेर
मिरे फ़ुसूँ ने दिखाई है तेरे रुख़ की सहर
मिरे जुनूँ ने बनाई है तेरे ज़ुल्फ़ की शाम
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तिरी ज़ुल्फ़ों को क्या सुलझाऊँ ऐ दोस्त
मिरी राहों में पेच-ओ-ख़म बहुत हैं
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आप की मेरी कहानी एक है
कहिए अब मैं क्या सुनाऊँ क्या सुनूँ
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पहुँच ही जाएगा ये हाथ तेरी ज़ुल्फ़ों तक
यूँही जुनूँ का अगर सिलसिला दराज़ रहा
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थी जुनूँ-आमेज़ अपनी गुफ़्तुगू
बात मतलब की भी लेकिन कह गए
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ये मस्लक अपना अपना है ये फ़ितरत अपनी अपनी है
जलाओ आशियाँ तुम हम करेंगे आशियाँ पैदा
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नहीं है दिल का सुकूँ क़िस्मत-ए-तमन्ना में
तुम्हें भी दिल की तमन्ना बना के देख लिया
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ज़बाँ पे नाम-ए-मोहब्बत भी जुर्म था यानी
हम उन से जुर्म-ए-मोहब्बत भी बख़्शवा न सके
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सब कुछ है और कुछ नहीं ऐ दाद-ख़्वाह-ए-इश्क़
वो देख कर न देखना नीची निगाह से
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नज़'अ तक दिल उस को दोहराया किया
इक तबस्सुम में वो क्या कुछ कह गए
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बैठे रहे वो ख़ून-ए-तमन्ना किए हुए
देखा किए उन्हें निगह-ए-इल्तिजा से हम
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कुछ इस तरह तिरी उल्फ़त में काट दी मैं ने
गुनाहगार हुआ और न पाक-बाज़ रहा
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चराग़-ए-कुश्ता ले कर हम तिरी महफ़िल में क्या आते
जो दिन थे ज़िंदगी के वो तो रस्ते में गुज़ार आए
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हम ने लाले की तरह इस दौर में
आँख खोली थी कि देखा दिल का ख़ूँ
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