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मयकश अकबराबादी

1902 - 1991 | आगरा, भारत

प्रसिद्ध शायर के अलावा आलोचक और इक़बालिया के विशेषज्ञ थे और तसव्वुफ इनका मिज़ाज था।

प्रसिद्ध शायर के अलावा आलोचक और इक़बालिया के विशेषज्ञ थे और तसव्वुफ इनका मिज़ाज था।

मयकश अकबराबादी के शेर

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मिरे फ़ुसूँ ने दिखाई है तेरे रुख़ की सहर

मिरे जुनूँ ने बनाई है तेरे ज़ुल्फ़ की शाम

तिरी ज़ुल्फ़ों को क्या सुलझाऊँ दोस्त

मिरी राहों में पेच-ओ-ख़म बहुत हैं

आप की मेरी कहानी एक है

कहिए अब मैं क्या सुनाऊँ क्या सुनूँ

पहुँच ही जाएगा ये हाथ तेरी ज़ुल्फ़ों तक

यूँही जुनूँ का अगर सिलसिला दराज़ रहा

थी जुनूँ-आमेज़ अपनी गुफ़्तुगू

बात मतलब की भी लेकिन कह गए

ये मस्लक अपना अपना है ये फ़ितरत अपनी अपनी है

जलाओ आशियाँ तुम हम करेंगे आशियाँ पैदा

नहीं है दिल का सुकूँ क़िस्मत-ए-तमन्ना में

तुम्हें भी दिल की तमन्ना बना के देख लिया

ज़बाँ पे नाम-ए-मोहब्बत भी जुर्म था यानी

हम उन से जुर्म-ए-मोहब्बत भी बख़्शवा सके

सब कुछ है और कुछ नहीं दाद-ख़्वाह-ए-इश्क़

वो देख कर देखना नीची निगाह से

नज़'अ तक दिल उस को दोहराया किया

इक तबस्सुम में वो क्या कुछ कह गए

बैठे रहे वो ख़ून-ए-तमन्ना किए हुए

देखा किए उन्हें निगह-ए-इल्तिजा से हम

कुछ इस तरह तिरी उल्फ़त में काट दी मैं ने

गुनाहगार हुआ और पाक-बाज़ रहा

चराग़-ए-कुश्ता ले कर हम तिरी महफ़िल में क्या आते

जो दिन थे ज़िंदगी के वो तो रस्ते में गुज़ार आए

हम ने लाले की तरह इस दौर में

आँख खोली थी कि देखा दिल का ख़ूँ

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