ममनून निज़ामुद्दीन के शेर
कल वस्ल में भी नींद न आई तमाम शब
एक एक बात पर थी लड़ाई तमाम शब
ये न जाने थे कि उस महफ़िल में दिल रह जाएगा
हम ये समझे थे चले आएँगे दम भर देख कर
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ख़्वाब में बोसा लिया था रात ब-लब-ए-नाज़की
सुब्ह दम देखा तो उस के होंठ पे बुतख़ाला था
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कोई हमदर्द न हमदम न यगाना अपना
रू-ब-रू किस के कहें हम ये फ़साना अपना
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गुमाँ न क्यूँकि करूँ तुझ पे दिल चुराने का
झुका के आँख सबब क्या है मुस्कुराने का
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बुरा मानिए मत मिरे देखने से
तुम्हें हक़ ने ऐसा बनाया तो देखा
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तुझे नक़्श-ए-हस्ती मिटाया तो देखा
जो पर्दा था हाइल उठाया तो देखा
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न की ग़म्ज़ा ने जल्लादी न उन आँखों ने सफ़्फ़ाकी
जिसे कहते हैं दिल अपना वही क़ातिल हुआ जाँ का
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