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मारूफ़ देहलवी के शेर
दर्द-ए-सर में है किसे संदल लगाने का दिमाग़
उस का घिसना और लगाना दर्द-ए-सर ये भी तो है
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हवा के घोड़े पे जब वो सवार होते हैं
तो पा के वक़्त मैं क्या क्या मज़े उड़ाता हूँ
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तेरी आँखों के तसव्वुर में है सैर-ए-कौनैन
वर्ना हम लोग इधर के इधर हो के रहते
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का'बा-ओ-दैर को अपना तो यहीं से है सलाम
दर-ब-दर कौन फिरे यार के दर के होते
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साक़िया मय कहाँ है शीशे में
रौशनी आफ़्ताब की सी है
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मज़कूर जबकि तेरे तबस्सुम का आ पड़ा
गुलशन में तिफ़्ल-ए-ग़ुन्चा-ए-दिल खिलखिला पड़ा
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अश्क-ओ-लख़्त-ए-जिगर आँखों से रवाँ हैं 'मारूफ़'
अब कोई ला'ल चुने या दुर-ए-मशहूर चुने
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ग़फ़लत में जवानी गई पीरी में हुआ होश
क्यूँ कर न खुले आँख सहर ही तो है आख़िर
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सब लगे उस बुत को सज्दा करने ऐ 'मारूफ़' आह
कल जिधर माथे पे वो क़श्क़ा सिधारा खींच कर
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बोले वो अपनी शक्ल को आप आइने में देख
दरिया के पार और गुलिस्ताँ है दूसरा
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मैं ही नहीं हूँ शेफ़्ता-ए-हुस्न-ए-गंदुमी
आगे से होती आई है आदम को देखिए
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है दिल में ज़ुल्फ़-ए-यार के आलम को देखिए
फँसते हैं आप दाम में हम हम को देखिए
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सुनते ही हो के हम-आग़ोश कहा हँस के तुझे
दर्द-ए-दिल की है दवा और भी दरकार कि बस
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क्यूँ न मिट्टी ख़राब हो अपनी
इस ख़राबात की बिना हैं हम
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यहाँ तो दाग़-ए-ख़ूँ दामन से धोया तू ने ऐ क़ातिल
वहाँ इक दिन खिलेगा गुल हमारी बे-गुनाही का
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मैं ने आहें भरीं तो रुक के कहा
घर में धूनी सी क्या लगा दी है
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आँख टुक मूँदने दे हैरत-ए-इश्क़
ऐसी मैं टिकटिकी से दर गुज़रा
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