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मारूफ़ देहलवी

1748 - 1826 | दिल्ली, भारत

मारूफ़ देहलवी के शेर

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दर्द-ए-सर में है किसे संदल लगाने का दिमाग़

उस का घिसना और लगाना दर्द-ए-सर ये भी तो है

तेरी आँखों के तसव्वुर में है सैर-ए-कौनैन

वर्ना हम लोग इधर के इधर हो के रहते

का'बा-ओ-दैर को अपना तो यहीं से है सलाम

दर-ब-दर कौन फिरे यार के दर के होते

मैं ही नहीं हूँ शेफ़्ता-ए-हुस्न-ए-गंदुमी

आगे से होती आई है आदम को देखिए

है दिल में ज़ुल्फ़-ए-यार के आलम को देखिए

फँसते हैं आप दाम में हम हम को देखिए

क्यूँ मिट्टी ख़राब हो अपनी

इस ख़राबात की बिना हैं हम

अश्क-ओ-लख़्त-ए-जिगर आँखों से रवाँ हैं 'मारूफ़'

अब कोई ला'ल चुने या दुर-ए-मशहूर चुने

यहाँ तो दाग़-ए-ख़ूँ दामन से धोया तू ने क़ातिल

वहाँ इक दिन खिलेगा गुल हमारी बे-गुनाही का

साक़िया मय कहाँ है शीशे में

रौशनी आफ़्ताब की सी है

मज़कूर जबकि तेरे तबस्सुम का पड़ा

गुलशन में तिफ़्ल-ए-ग़ुन्चा-ए-दिल खिलखिला पड़ा

बोले वो अपनी शक्ल को आप आइने में देख

दरिया के पार और गुलिस्ताँ है दूसरा

सब लगे उस बुत को सज्दा करने 'मारूफ़' आह

कल जिधर माथे पे वो क़श्क़ा सिधारा खींच कर

सुनते ही हो के हम-आग़ोश कहा हँस के तुझे

दर्द-ए-दिल की है दवा और भी दरकार कि बस

मैं ने आहें भरीं तो रुक के कहा

घर में धूनी सी क्या लगा दी है

हवा के घोड़े पे जब वो सवार होते हैं

तो पा के वक़्त मैं क्या क्या मज़े उड़ाता हूँ

आँख टुक मूँदने दे हैरत-ए-इश्क़

ऐसी मैं टिकटिकी से दर गुज़रा

ग़फ़लत में जवानी गई पीरी में हुआ होश

क्यूँ कर खुले आँख सहर ही तो है आख़िर

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