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मसूद तन्हा के शेर

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यादों के क़ाफ़िले में उदासी थी हम-रिकाब

हिजरत में तेरे शहर से 'तन्हा' नहीं गए

शहर में रौनक़ें सही 'तन्हा'

अपने गाँव से मत किनारा कर

दोस्त ही ख़ूबियाँ बताते हैं

दोस्त ही ख़ामियाँ निकालते हैं

ये तमाशा सर-ए-बाज़ार नहीं हो सकता

हर कोई मेरा ख़रीदार नहीं हो सकता

दश्त-ए-ग़ुर्बत में हम-सफ़र बना

हम कई मेहरबान छोड़ आए

चुप जो रहते हैं तो ये बात ग़नीमत जानो

वर्ना हम लोग भी इक हश्र उठा सकते हैं

मैं जब भी लड़ा हक़ के लिए अपने अदू से

मैदाँ में रही कोई तलवार सलामत

जहाँ भी देखा उन्हें दोस्तो सलाम किया

हमेशा हम ने हसीनों का एहतिराम किया

मैं जानता हूँ ज़माने की बे-नियाज़ी को

मुझे पता है सफ़र में कहाँ ठहरना है

गुनाहों ने मुझे जकड़ा हुआ है इस तरह 'तन्हा'

कि लहज़ा-भर इबादत भी सज़ा मालूम होती है

कोई ताज़ा लगाओ ज़ख़्म दिल पर

पुरानी ये निशानी हो रही है

आज आओ इस तरह जैसे कि पहली बार तुम

गए थे बे-ख़याली में सँवर के सामने

बार-हा हम ने उसे रो के कहा है साहिब

दिन जुदाई के नहीं हम से गुज़ारे जाते

बहुत ख़ामोश रहता है जो 'तन्हा'

वो महफ़िल में बराबर बोलता है

बज़्म-ए-याराँ में बैठता हूँ मगर

मेरी जानिब हरीफ़ देखते हैं

अमीर-ए-शहर की थोड़ी सी कजरवी के सबब

ग़रीब-ए-शहर ने देखे हैं अलमिये कितने

हँसे वालों को जो इक पल में रुला सकते हैं

ऐसे लम्हात भी तो ज़ीस्त में सकते हैं

ज़ख़्म देता है हर कोई 'तन्हा'

हौसला भी दिया करे कोई

सुलूक रखता है मुझ से मुनाफ़िक़ों जैसा

तमाम शहर में जो मो'तबर ज़ियादा है

इस बार उखड़ जाएँगे ऐवान-ए-सियासत

दरबान रहेंगे ये दरबार रहेगा

बच के निकला था जो कभी मुझ से

गया है मिरे निशाने पर

कम मिलने का एहसास-ए-गराँ लगता है तेरा

अब लुत्फ़-ओ-करम भी तिरा पहले सा नहीं है

मार डालेगी एक दिन 'तन्हा'

ये तिरी शोख़ी-ए-जमाल मुझे

बहाने तर्क-ए-तअ'ल्लुक़ के किस ने ढूँडे थे

ये सारे हल्क़ा-ए-याराँ में फ़ैसले होंगे

जाने क्या क्या और हों राह-ए-तलब में मुश्किलें

साथ रखना है कभी ज़ाद-ए-सफ़र मत भूलना

क़ाफ़िले रह में लूटने वाला

राहज़न एक रहनुमा निकला

जंगल में जो सन्नाटा था

शहर की जानिब निकला है

छुपा कर दर्द को सीने में 'तन्हा'

भरम उस का भी कुछ रखना पड़ेगा

वो सख़ी है तो उस की चौखट पर

दिलबरी का सवाल कर देखें

जिस को राहत है तेरी यादों से

तेरी फ़ुर्क़त में अश्क-बार भी है

हादसे फिर पेश आते हमें

ये मुहाफ़िज़ जो करते घात पे ग़ौर

मसीहाई का हो ए'जाज़ जिस में

कहीं वो चारागर मिलता नहीं है

भँवर ने लिया है कश्तियों को

नज़ारे देख लो तुम भी अजल के

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