मेराज फ़ैज़ाबादी के शेर
हमें पढ़ाओ न रिश्तों की कोई और किताब
पढ़ी है बाप के चेहरे की झुर्रियाँ हम ने
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मुझ को थकने नहीं देता ये ज़रूरत का पहाड़
मेरे बच्चे मुझे बूढ़ा नहीं होने देते
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प्यास कहती है चलो रेत निचोड़ी जाए
अपने हिस्से में समुंदर नहीं आने वाला
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जो कह रहे थे कि जीना मुहाल है तुम बिन
बिछड़ के मुझ से वो दो दिन उदास भी न रहे
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आज भी गाँव में कुछ कच्चे मकानों वाले
घर में हम-साए के फ़ाक़ा नहीं होने देते
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यूँ हुआ फिर बंद कर लीं उस ने आँखें एक दिन
वो समझ लेता था दिल का हाल चेहरा देख कर
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तेरे बारे में जब सोचा नहीं था
मैं तन्हा था मगर इतना नहीं था
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शायरी में 'मीर'-ओ-'ग़ालिब' के ज़माना अब कहाँ
शोहरतें जब इतनी सस्ती हों अदब देखेगा कौन
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टैग : मीर तक़ी मीर
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ज़िंदगी दी है तो जीने का हुनर भी देना
पाँव बख़्शें हैं तो तौफ़ीक़-ए-सफ़र भी देना
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टैग : संसद
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