मियाँ दाद ख़ां सय्याह के शेर
क़ैस जंगल में अकेला है मुझे जाने दो
ख़ूब गुज़रेगी जो मिल बैठेंगे दीवाने दो
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तुर्रा-ए-काकुल-ए-पेचां रुख़-ए-नूरानी पर
चश्मा-ए-आईना में साँप सा लहराता है
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