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Mumtaz Ahmad Khan Khushtar's Photo'

मुमताज़ अहमद ख़ाँ ख़ुशतर खांडवी

1910

मुमताज़ अहमद ख़ाँ ख़ुशतर खांडवी के शेर

ग़म-ओ-कर्ब-ओ-अलम से दूर अपनी ज़िंदगी क्यूँ हो

यही जीने का सामाँ हैं तो फिर इन में कमी क्यूँ हो

उसी को हम समझ लेते हैं अपना सादगी देखो

जो अपने साथ राह-ए-शौक़ में दो गाम आता है

ग़म अपना अब ख़ुशी अपनी

यानी दुनिया बदल गई अपनी

कहाँ रह जाए थक कर रह-नवर्द-ए-ग़म ख़ुदा जाने

हज़ारों मंज़िलें हैं मंज़िल-ए-आराम आने तक

जब से फ़रेब-ए-ज़ीस्त में आने लगा हूँ मैं

ख़ुद अपनी मुश्किलों को बढ़ाने लगा हूँ मैं

जिस ने जी भर के तजल्ली को कभी देखा हो

कोई ऐसा भी तिरी जल्वा-गह-ए-नाज़ में है

तलाश-ए-सूरत-ए-तस्कीं कर औहाम-हस्ती में

दिल-ए-महज़ूँ बहल सकता नहीं इस नक़्श-ए-बातिल से

गुबार-ए-ज़िंदगी में लैला-ए-मक़्सूद क्या मअ'नी

वो दीवाने हैं जो इस गर्द को महमिल समझते हैं

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