मुसव्विर सब्ज़वारी के शेर
अपने होने का कुछ एहसास न होने से हुआ
ख़ुद से मिलना मिरा इक शख़्स के खोने से हुआ
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गुज़रते पत्तों की चाप होगी तुम्हारे सेहन-ए-अना के अंदर
फ़सुर्दा यादों की बारिशें भी मुझे भुलाने के बाद होंगी
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वो सर्दियों की धूप की तरह ग़ुरूब हो गया
लिपट रही है याद जिस्म से लिहाफ़ की तरह
सजनी की आँखों में छुप कर जब झाँका
बिन होली खेले ही साजन भीग गया
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टैग : होली
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ख़त्म होने दे मिरे साथ ही अपना भी वजूद
तू भी इक नक़्श ख़राबे का है मर जा मुझ में
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टैग : वजूद
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न टूट कर इतना हम को चाहो कि रो पड़ें हम
दबी दबाई सी चोट इक इक उभर गई है
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इसी उमीद पे जलती हैं दश्त दश्त आँखें
कभी तो आएगा उम्र-ए-ख़राब काट के वो
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न सोचो तर्क-ए-तअ'ल्लुक़ के मोड़ पर रुक कर
क़दम बढ़ाओ कि ये हादसा ज़रूरी है
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रिश्तों का बोझ ढोना दिल दिल में कुढ़ते रहना
हम एक दूसरे पर एहसान हो गए हैं
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किसी को क़िस्सा-ए-पाकी-ए-चश्म याद नहीं
ये आँखें कौन सी बरसात में नहाई थीं
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टैग : आँख
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मैं संग-ए-रह नहीं जो उठा कर तू फेंक दे
मैं ऐसा मरहला हूँ जो सौ बार आएगा
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आँखें यूँ बरसीं पैराहन भीग गया
तेरे ध्यान में सारा सावन भीग गया
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जिसे मैं छू नहीं सकता दिखाई क्यूँ वो देता है
फ़रिश्तों जैसी बस मेरी इबादत देखते रहना
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हमारे बीच में इक और शख़्स होना था
जो लड़ पड़े तो कोई भी नहीं मनाने का
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मिरे बच्चे तिरा बचपन तो मैं ने बेच डाला
बुज़ुर्गी ओढ़ कर काँधे तिरे ख़म हो गए हैं
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गरमा सकीं न चाहतें तेरा कठोर जिस्म
हर इक जल के बुझ गई तस्वीर संग में
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टैग : तस्वीर
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मैं संग-ए-रह हूँ तो ठोकर की ज़द पे आऊँगा
तुम आईना हो तो फिर टूटना ज़रूरी है
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फ़ैसला थे वक़्त का फिर बे-असर कैसे हुए
सच की पेशानी पे हम झूटी ख़बर कैसे हुए
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किया न तर्क-ए-मरासिम पे एहतिजाज उस ने
कि जैसे गुज़रे किसी मंज़िल-ए-नजात से वो
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कोई महकार है ख़ुश्बू की न रंगों की लकीर
एक सहरा हूँ कहीं से भी गुज़र जा मुझ में
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जाते मौसम की तरह उस से कभी मिल न सका
एक लम्हे के तअल्लुक़ की सज़ा हूँ मैं तो
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जाते क़दमों की कोई चाप ही शायद सुन लूँ
डूबते लम्हों की बारात उभर जा मुझ में
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अज़ाबों से टपकती ये छतें बरसों चलेंगी
अभी से क्यूँ मकीं मसरूफ़-ए-मातम हो गए हैं
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सफ़-ए-मुनाफ़िक़ाँ में फिर वो जा मिला तो क्या अजब
हुई थी सुल्ह भी ख़मोश इख़्तिलाफ़ की तरह
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जो ख़स-ए-बदन था जला बहुत कई निकहतों की तलाश में
मैं तमाम लोगों से मिल चुका तिरी क़ुर्बतों की तलाश में
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जाते क़दमों की कोई चाप ही शायद सुन लूँ
डूबते लम्हों की बारात उभर जा मुझ में
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हिसार-ए-गोश-ए-समाअत की दस्तरस में कहाँ
तू वो सदा जो फ़क़त जिस्म को सुनाई दे
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देख वो दश्त की दीवार है सब का मक़्तल
इस बरस जाऊँगा मैं अगले बरस जाएगा तू
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ज़हर बन कर वो 'मुसव्विर' मिरी नस नस में रहा
मैं ने समझा था उसे भूल चुका हूँ मैं तो
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थे उस के साथ ज़वाल-ए-सफ़र के सब मंज़र
वो दुखते दिल के बहुत संग-ए-मील छोड़ गया
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कनार-ए-आब हवा जब भी सनसनाती है
नदी में चुपके से इक चीख़ डूब जाती है
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कड़े हैं कोस सफ़र दूर का ज़रूरी है
घरों से रिश्तों का अब ख़ात्मा ज़रूरी है
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