निसार जयराजपुरी के दोहे
सोने से करता फिरे है तू उस का मोल
तू क्या जाने बावरे माटी है अनमोल
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जाते जाते ये समय यादें कुछ दे जाए
पिंजरे से मैना उड़ी परछाईं रह जाए
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तन्हा बचा सकेगा कैसे खाता फिरे थपेड़
रोए बैठा मोड़ पर बरगद का एक पेड़
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रेन बसेरा आज याँ कल होगा किस ओर
कुछ तुझ को मालूम है आने वाले भोर
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