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Saba Akbarabadi's Photo'

सबा अकबराबादी

1908 - 1991 | कराची, पाकिस्तान

सबा अकबराबादी के शेर

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टुकड़े हुए थे दामन-ए-हस्ती के जिस क़दर

दल्क़-ए-गदा-ए-इश्क़ के पैवंद हो गए

इस शान का आशुफ़्ता-ओ-हैराँ मिलेगा

आईने से फ़ुर्सत हो तो तस्वीर-ए-'सबा' देख

इक रोज़ छीन लेगी हमीं से ज़मीं हमें

छीनेंगे क्या ज़मीं के ख़ज़ाने ज़मीं से हम

ख़्वाहिशों ने दिल को तस्वीर-ए-तमन्ना कर दिया

इक नज़र ने आइने में अक्स गहरा कर दिया

कौन उठाए इश्क़ के अंजाम की जानिब नज़र

कुछ असर बाक़ी हैं अब तक हैरत-ए-आग़ाज़ के

रौशनी ख़ुद भी चराग़ों से अलग रहती है

दिल में जो रहते हैं वो दिल नहीं होने पाते

पस्ती ने बुलंदी को बनाया है हक़ीक़त

ये रिफ़अत-ए-अफ़्लाक भी मुहताज-ए-ज़मीं है

ग़लत-फ़हमियों में जवानी गुज़ारी

कभी वो समझे कभी हम समझे

अभी तो एक वतन छोड़ कर ही निकले हैं

हनूज़ देखनी बाक़ी हैं हिजरतें क्या क्या

आप आए हैं सो अब घर में उजाला है बहुत

कहिए जलती रहे या शम्अ बुझा दी जाए

अच्छा हुआ कि सब दर-ओ-दीवार गिर पड़े

अब रौशनी तो है मिरे घर में हवा तो है

बाल-ओ-पर की जुम्बिशों को काम में लाते रहो

क़फ़स वालो क़फ़स से छूटना मुश्किल सही

इश्क़ आता अगर राह-नुमाई के लिए

आप भी वाक़िफ़-ए-मंज़िल नहीं होने पाते

कब तक नजात पाएँगे वहम यक़ीं से हम

उलझे हुए हैं आज भी दुनिया दीं से हम

सौ बार जिस को देख के हैरान हो चुके

जी चाहता है फिर उसे इक बार देखना

रवाँ है क़ाफ़िला-ए-रूह-ए-इलतिफ़ात अभी

हमारी राह से हट जाए काएनात अभी

अज़ल से आज तक सज्दे किए और ये नहीं सोचा

किसी का आस्ताँ क्यूँ है किसी का संग-ए-दर क्या है

हवस-परस्त अदीबों पे हद लगे कोई

तबाह करते हैं लफ़्ज़ों की इस्मतें क्या क्या

आप के लब पे और वफ़ा की क़सम

क्या क़सम खाई है ख़ुदा की क़सम

कुफ़्र इस्लाम के झगड़े को चुका दो साहब

जंग आपस में करें शैख़ बरहमन कब तक

मुसाफ़िरान-ए-रह-ए-शौक़ सुस्त-गाम हो क्यूँ

क़दम बढ़ाए हुए हाँ क़दम बढ़ाए हुए

अपने जलने में किसी को नहीं करते हैं शरीक

रात हो जाए तो हम शम्अ बुझा देते हैं

कमाल-ए-ज़ब्त में यूँ अश्क-ए-मुज़्तर टूट कर निकला

असीर-ए-ग़म कोई ज़िंदाँ से जैसे छूट कर निकला

क्या मआल-ए-दहर है मेरी मोहब्बत का मआल

हैं अभी लाखों फ़साने मुंतज़िर आग़ाज़ के

गए थे नक़्द-ए-गिराँ-माया-ए-ख़ुलूस के साथ

ख़रीद लाए हैं सस्ती अदावतें क्या क्या

ग़म-ए-दौराँ को बड़ी चीज़ समझ रक्खा था

काम जब तक पड़ा था ग़म-ए-जानाँ से हमें

समझेगा आदमी को वहाँ कौन आदमी

बंदा जहाँ ख़ुदा को ख़ुदा मानता नहीं

काम आएगी मिज़ाज-ए-इश्क़ की आशुफ़्तगी

और कुछ हो या हो हंगामा-ए-महफ़िल सही

कब तक यक़ीन इश्क़ हमें ख़ुद आएगा

कब तक मकाँ का हाल कहेंगे मकीं से हम

आईना कैसा था वो शाम-ए-शकेबाई का

सामना कर सका अपनी ही बीनाई का

दोस्तों से ये कहूँ क्या कि मिरी क़द्र करो

अभी अर्ज़ां हूँ कभी पाओगे नायाब मुझे

भीड़ तन्हाइयों का मेला है

आदमी आदमी अकेला है

ऐसा भी कोई ग़म है जो तुम से नहीं पाया

ऐसा भी कोई दर्द है जो दिल में नहीं है

जब इश्क़ था तो दिल का उजाला था दहर में

कोई चराग़ नूर-बदामाँ नहीं है अब

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