साहिर देहल्वी के शेर
मिल-मिला के दोनों ने दिल को कर दिया बरबाद
हुस्न ने किया बे-ख़ुद इश्क़ ने किया आज़ाद
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नक़्श-ए-क़दम हैं राह में फ़रहाद-ओ-क़ैस के
ऐ इश्क़ खींच कर मुझे लाया इधर कहाँ
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शेर क्या है आह है या वाह है
जिस से हर दिल की उभर आती है चोट
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यूँ तो हर दीन में है साहब-ए-ईमाँ होना
हम को इक बुत ने सिखाया है मुसलमाँ होना
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अज़ल से हम-नफ़सी है जो जान-ए-जाँ से हमें
पयाम दम-ब-दम आता है ला-मकाँ से हमें
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किताब-ए-दर्स-ए-मजनूँ मुसहफ़-रुख़्सार-ए-लैला है
हरीफ़-ए-नुक्ता-दान-ए-इश्क़ को मकतब से क्या मतलब
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ग़म-ए-मौजूद ग़लत और ग़म-ए-फ़र्दा बातिल
राहत इक ख़्वाब है जिस की कोई ताबीर नहीं
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वा होते हैं मस्ती में ख़राबात के असरार
रिंदी मिरा ईमान है मस्ती है मिरा फ़र्ज़
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था अनल-हक़ लब-ए-मंसूर पे क्या आप से आप
था जो पर्दे में छुपा बोल उठा आप से आप
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अहद-ए-मीसाक़ का लाज़िम है अदब ऐ वाइ'ज़
है ये पैमान-ए-वफ़ा रिश्ता-ए-ज़ुन्नार न तोड़
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जो ला-मज़हब हो उस को मिल्लत-ओ-मशरब से क्या मतलब
मिरा मशरब है रिंदी रिंद को मज़हब से क्या मतलब
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ऐ परी-रू तिरे दीवाने का ईमाँ क्या है
इक निगाह-ए-ग़लत-अंदाज़ पे क़ुर्बां होना
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मैं दीवाना हूँ और दैर-ओ-हरम से मुझ को वहशत है
पड़ी रहने दो मेरे पाँव में ज़ंजीर-ए-मय-ख़ाना
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क्या शौक़ का आलम था कि हाथों से उड़ा ख़त
दिल थाम के उस शोख़ को लिखने जो लगा ख़त
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पाबंदी-ए-अहकाम-ए-शरीअत है वहाँ फ़र्ज़
रिंदों को रुख़-ए-साक़ी-ओ-साग़र हुए मख़्सूस
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है सनम-ख़ाना मिरा पैमान-ए-इश्क़
ज़ौक़-ए-मय-ख़ाना मुझे सामान-ए-इश्क़
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आते हुए इस तन में न जाते हुए तन से
है जान-ए-मकीं को न लगावट न रुकावट
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हम गदा-ए-दर-ए-मय-ख़ाना हैं ऐ पीर-ए-मुग़ाँ
काम अपना तिरे सदक़े में चला लेते हैं
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कौनैन-ए-ऐन-ए-इल्म में है जल्वा-गाह-ए-हुस्न
जेब-ए-ख़िरद से ऐनक-ए-इरफ़ाँ निकालिए
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बे-निशाँ साहिर निशाँ में आ के शायद बन गया
ला-मकाँ हो कर मकाँ में ख़ुद मकीं होता रहा
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क़दम है ऐन हुदूस और हुदूस ऐन क़दम
जो तू न जल्वे में आता तो मैं कहाँ होता
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क़ुल्ज़ुम-ए-फ़िक्र में है कश्ती-ए-ईमाँ सालिम
ना-ख़ुदा हुस्न है और इश्क़ है लंगर अपना
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अयाँ 'अलीम' से है जिस्म-ओ-जान का इल्हाक़
मकीं मकाँ में न होता तो ला-मकाँ होता
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