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साहिर देहल्वी

1863 - 1962 | दिल्ली, भारत

पंडित अमरनाथ साहिर दिल्ली में कश्मीरी पंडित समुदाय के प्रमुख कवियों में एक महत्वपूर्ण नाम। अपनी रचनाओं में सूफ़ीवाद और वेदांत रहस्यवाद के संयोजन के लिए चर्चित।

पंडित अमरनाथ साहिर दिल्ली में कश्मीरी पंडित समुदाय के प्रमुख कवियों में एक महत्वपूर्ण नाम। अपनी रचनाओं में सूफ़ीवाद और वेदांत रहस्यवाद के संयोजन के लिए चर्चित।

साहिर देहल्वी के शेर

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मिल-मिला के दोनों ने दिल को कर दिया बरबाद

हुस्न ने किया बे-ख़ुद इश्क़ ने किया आज़ाद

था अनल-हक़ लब-ए-मंसूर पे क्या आप से आप

था जो पर्दे में छुपा बोल उठा आप से आप

शेर क्या है आह है या वाह है

जिस से हर दिल की उभर आती है चोट

नक़्श-ए-क़दम हैं राह में फ़रहाद-ओ-क़ैस के

इश्क़ खींच कर मुझे लाया इधर कहाँ

पाबंदी-ए-अहकाम-ए-शरीअत है वहाँ फ़र्ज़

रिंदों को रुख़-ए-साक़ी-ओ-साग़र हुए मख़्सूस

यूँ तो हर दीन में है साहब-ए-ईमाँ होना

हम को इक बुत ने सिखाया है मुसलमाँ होना

वा होते हैं मस्ती में ख़राबात के असरार

रिंदी मिरा ईमान है मस्ती है मिरा फ़र्ज़

किताब-ए-दर्स-ए-मजनूँ मुसहफ़-रुख़्सार-ए-लैला है

हरीफ़-ए-नुक्ता-दान-ए-इश्क़ को मकतब से क्या मतलब

ग़म-ए-मौजूद ग़लत और ग़म-ए-फ़र्दा बातिल

राहत इक ख़्वाब है जिस की कोई ताबीर नहीं

हम गदा-ए-दर-ए-मय-ख़ाना हैं पीर-ए-मुग़ाँ

काम अपना तिरे सदक़े में चला लेते हैं

अज़ल से हम-नफ़सी है जो जान-ए-जाँ से हमें

पयाम दम-ब-दम आता है ला-मकाँ से हमें

अहद-ए-मीसाक़ का लाज़िम है अदब वाइ'ज़

है ये पैमान-ए-वफ़ा रिश्ता-ए-ज़ुन्नार तोड़

मैं दीवाना हूँ और दैर-ओ-हरम से मुझ को वहशत है

पड़ी रहने दो मेरे पाँव में ज़ंजीर-ए-मय-ख़ाना

जो ला-मज़हब हो उस को मिल्लत-ओ-मशरब से क्या मतलब

मिरा मशरब है रिंदी रिंद को मज़हब से क्या मतलब

परी-रू तिरे दीवाने का ईमाँ क्या है

इक निगाह-ए-ग़लत-अंदाज़ पे क़ुर्बां होना

आते हुए इस तन में जाते हुए तन से

है जान-ए-मकीं को लगावट रुकावट

कौनैन-ए-ऐन-ए-इल्म में है जल्वा-गाह-ए-हुस्न

जेब-ए-ख़िरद से ऐनक-ए-इरफ़ाँ निकालिए

क्या शौक़ का आलम था कि हाथों से उड़ा ख़त

दिल थाम के उस शोख़ को लिखने जो लगा ख़त

है सनम-ख़ाना मिरा पैमान-ए-इश्क़

ज़ौक़-ए-मय-ख़ाना मुझे सामान-ए-इश्क़

क़दम है ऐन हुदूस और हुदूस ऐन क़दम

जो तू जल्वे में आता तो मैं कहाँ होता

अयाँ 'अलीम' से है जिस्म-ओ-जान का इल्हाक़

मकीं मकाँ में होता तो ला-मकाँ होता

बे-निशाँ साहिर निशाँ में के शायद बन गया

ला-मकाँ हो कर मकाँ में ख़ुद मकीं होता रहा

क़ुल्ज़ुम-ए-फ़िक्र में है कश्ती-ए-ईमाँ सालिम

ना-ख़ुदा हुस्न है और इश्क़ है लंगर अपना

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