सरफ़राज़ शाहिद के शेर
कुछ मह-जबीं लिबास के फैशन की दौड़ में
पाबंदी-ए-लिबास से आगे निकल गए
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सुरूर-ए-जाँ-फ़ज़ा देती है आग़ोश-ए-वतन सब को
कि जैसे भी हों बच्चे माँ को प्यारे एक जैसे हैं
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ईद पर मसरूर हैं दोनों मियाँ बीवी बहुत
इक ख़रीदारी से पहले इक ख़रीदारी के ब'अद
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टैग : ईद
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फ़क़त रंग ही उन का काला नहीं है
इसी क़िस्म की ख़ूबियाँ और भी हैं
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स्पैशलिस्ट पेन-किलर दे तो कौन सा?
''सारे जहाँ का दर्द हमारे जिगर में है''
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मुर्ग़ पर फ़ौरन झपट दावत में वर्ना ब'अद में
शोरबा और गर्दनों की हड्डियाँ रह जाएँगी
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सारे शिकवे दूर हो जाएँ जो क़ुदरत सौंप दे
मेरी दानाई तुझे और तेरी नादानी मुझे
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कोई ख़ुश-ज़ौक़ ही 'शाहिद' ये नुक्ता जान सकता है
कि मेरे शेर और नख़रे तुम्हारे एक जैसे हैं
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ऐसे लगे है नौकरी माल-ए-हराम के बग़ैर
जैसे हो 'दाग़' की ग़ज़ल बादा ओ जाम के बग़ैर
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इस दौर के मर्दों की जो की शक्ल-शुमारी
साबित हुआ दुनिया में ख़्वातीन बहुत हैं
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राज़-ओ-नियाज़ में भी अकड़-फ़ूँ नहीं गई
वो ख़त भी लिख रहा है तो चालान की तरह
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बजट की कई सख़्तियाँ और भी हैं
''अभी इश्क़ के इम्तिहाँ और भी हैं''
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'शाहिद'-साहिब कहलाते हैं मिस्टर भी मौलाना भी
हज़रत दो किरदारों वाले हेरा-फेरी करते हैं
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अवामुन्नास को ऐसे दबोचा है गिरानी ने
कि जैसे कैट के पंजे में कोई रैट होता है
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हम ने तो उन्हें जामिआ से नक़्द ख़रीदा
फिर किस तरह जाली हुईं अस्नाद हमारी
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