सिराज अजमली का परिचय
जो नहीं होता बहुत होती है शोहरत उस की
जो गुज़रती है वो अशआ'र में आती ही नहीं
सिराज अजमली की पैदाइश 8 नवंबर, 1966 को बलिया, उत्तर प्रदेश में हिन्दुस्तान की मशहूर सूफ़ी ख़ानक़ाह दरगाह शाह वली सिकंदरपुर में सय्यद जमालुद्दीन अजमली के घर में हुई जो पेशे से स्कूल टीचर थे। इब्तिदा ही से ये ख़ानक़ाह, क़ादरी सिलसिले के सूफ़ी बुज़ुर्गों के उसूलों पर कारबंद है। उन्होंने हाईस्कूल गाँधी इंटर काॅलेज, सिकंदरपुर बलिया से, इंटरमीडिएट इलाहाबाद के मजीदिया इस्लामिया इंटर काॅलेज से साइंस साइड से किया और बी.एस.सी. में सी.एस.पी. डिग्री काॅलेज में दाख़िला लिया। इसी दौरान उन्होंने इलाहाबाद से शाए होने वाले उर्दू रोज़नामे “सफ़ीर-ए-नौ” को 300 रुपए माहाना पर ज्वाइन कर लिया। इस मुद्दत में सिराज अजमली मुस्तक़िल दाइरा शाह अजमल में मुक़ीम रहे। जहाँ के सज्जादा नशीन मौलाना शाह सय्यद अहमद अजमली उनके नाना और पीर-ओ-मुर्शिद थे। उर्दू के मशहूर तरक़्क़ी पसंद शायर और तर्जुमा निगार अजमल अजमली, सज्जादा नशीन दाइरा शाह अजमल के बड़े बेटे थे। 1980 से 1987 तक सिराज अजमली की रस्मी तालीम इलाहाबाद में और अदबी तरबियत दाइरा-ए-शाह अजमल में हुई। अजमल अजमली के छोटे भाई और अपने वालिद-ए-माजिद के बाद दाइरे के सज्जादा नशीन सय्यद अकमल अजमली, उनके छोटे भाई मौलाना सय्यद अफ़ज़ल अजमली का सिराज अजमली की तरबियत में बहुत बड़ा हाथ रहा। बाद अज़ाँ सिराज अजमली ने सी.पी.एम.टी., पी.एम.टी. की तय्यारी भी की लेकिन तबीअत किसी में लगी नहीं। और उन्होंने कानपुर यूनिवर्सिटी से प्राइवेट बी.ए. कर लिया। उन्होंने आला तालीम के लिए 1986 में दिल्ली का सफ़र किया, जहाँ माहाना डाइजेस्ट हुदा के हिंदी पर्चे “ताहा” में हिंदी का शोबा 700 रुपए माहाना पर ज्वाइन कर लिया। वो आल इंडिया रेडियो की उर्दू सर्विस में 1987 से 1997 तक कैजुअल एनाउंसर के फ़राइज़ भी अंजाम देते रहे। दिल्ली यूनिवर्सिटी में मास्टर्स (उर्दू) में दाख़िला लिया (चूँकि कानपुर से दो साला बी.ए. किया था, इसलिए ब्रिज कोर्स भी करना पड़ा), जहाँ 1989 में मास्टर्स पूरा किया और उसी बरस जे.आर.एफ़. का इम्तिहान भी पहली ही कोशिश में पास कर लिया। दिल्ली यूनिवर्सिटी में नामवर अदीब प्रफ़ेसर क़मर रईस साहब के ज़ेर-ए-निगरानी अपनी पी.एच.डी. का मक़ाला मुकम्मल किया। आजकल अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी के शोबा-ए-उर्दू में प्रोफ़ेसर के ओहदे पर फ़ाइज़ हैं।
सिराज अजमली की शायरी अपने आप में एक मुन्फ़रिद जहान है, जहाँ लफ़्ज़ निहायत सादगी के साथ गहरे मानी और तहदारी का इज़हार करते हैं। उनका कलाम ज़िंदगी के उन पोशीदा गोशों से रूशनास कराता है जो आम नज़रों से ओझल रहते हैं। उनके कलाम में इंसानी एहसासात और जज़्बात का ऐसा अमीक़ मुशाहिदा मिलता है जो पढ़ने वाले को एक नए फ़िक्री सफ़र पर रवाना करता है।
जदीद और जदीद अहद के तक़ाज़े, मोहब्बत, तन्हाई, उम्मीद और सुपुर्दगी जैसे मौज़ूआत और मज़ामीन का ज़िक्र उनकी ग़ज़ल में ग़ैरमामूली महारत के साथ मिलता है। उनके शेर एक ज़ाहिरी सादगी के बावुजूद अपने अंदर एक फ़िक्री पेचीदगी रखते हैं, जो पढ़ने-सुनने वालों को सोचने पर मजबूर करती है। यही उनका ख़ास्सा है कि उनकी शायरी में न सिर्फ़ ज़ाती जज़्बात की झलक मिलती है बल्कि एक इज्तिमाई शुऊर की कारफ़रमाई भी वाज़ेह नज़र आती है।
सिराज अजमली का उस्लूब रिवायत और जिद्दत का हसीन इम्तिज़ाज है। वो लफ़्ज़ों को इस तरह बरतते हैं कि हर मिसरा एक नया ज़ाविया पेश करता है और ज़िंदगी की मुख़्तलिफ़ परतें खुलती चली जाती हैं। उनका कलाम उर्दू अदब में न सिर्फ़ एक अहम इज़ाफ़ा है बल्कि ये मुस्तक़बिल के अदबी रुजहानात के लिए एक राहनुमा की हैसियत भी रखता है। उनकी शायरी ज़बान, एहसास और फ़िक्र की उस जमालियात को पेश करती है जो अदब को उसके अस्ल मानी में बुलंद करती है।