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Quotes of Syed Ehtisham Husain
तन्हाई का एहसास अगर बीमारी न बन जाये तो उसी तरह आरज़ी है जैसे मौत का ख़ौफ़।
ग़ज़ल अपने मिज़ाज के एतबार से ऊँचे और मुहज़्ज़ब तबक़े की चीज़ है। इसमें आम इन्सान नहीं आते।
समाजी कश्मकश से पैदा होने वाले अदब का जितना ज़ख़ीरा उर्दू में फ़राहम हो गया है, उतना शायद हिन्दुस्तान की किसी दूसरी ज़बान में नहीं है।
अदब की समाजी अहमियत उस वक़्त तक समझ में नहीं आ सकती, जब तक हम अदीब को बा-शऊर न मानें।
सबसे ज़्यादा जो बुत इन्सान की राह में हायल होता है वो आबा-ओ-अज्दाद की तक़लीद और रस्म-ओ-रिवाज की पैरवी का बुत है। जिसने उसे तोड़ लिया उसके लिए आगे रास्ता साफ़ हो जाता है।
समाजी कश्मकश से पैदा होने वाले अदब का जितना ज़ख़ीरा उर्दू में फ़राहम हो गया है उतना शायद हिन्दुस्तान की किसी दूसरी ज़बान में नहीं है।
ज़िंदगी को नए तजुर्बों की राह पर डालना, बंधे-टके उसूलों से इन्हिराफ़ कर के ज़िंदगी में नई क़दरों की जुस्तजू करना बुत-शिकनी है।
शायद यह बहस कभी ख़त्म न होगी कि नक़्क़ाद की ज़रूरत है भी या नहीं। बहस ख़त्म हो या न हो, दुनिया में अदीब भी हैं और नक़्क़ाद भी।
शायर और अदीब नक़्क़ाद की उंगली पकड़ कर नहीं चल सकता और न नक़्क़ाद का यह काम है कि वे अदीब की आज़ादी में रुकावट डाले।
ज़बान पहले पैदा हुई और रस्म-ए-ख़त बाद में। मैं इससे यह नतीजा निकालता हूँ कि ज़बान और रस्म-ए-ख़त में कोई बातिनी ताल्लुक़ नहीं है, बल्कि रस्मी है और अगर यह बात तस्लीम कर ली जाये तो ज़बान और रस्म-ए-ख़त के मुताल्लिक़ जो बहस जारी है वो महदूद हो सकती है।
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