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aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair

jis ke hote hue hote the zamāne mere

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Syed Ehtisham Husain

1912 - 1972 | Allahabad, India

One of the most prominent literary critics associated with Progressive Movement.

One of the most prominent literary critics associated with Progressive Movement.

Quotes of Syed Ehtisham Husain

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तन्हाई का एहसास अगर बीमारी बन जाये तो उसी तरह आरज़ी है जैसे मौत का ख़ौफ़।

ग़ज़ल अपने मिज़ाज के एतबार से ऊँचे और मुहज़्ज़ब तबक़े की चीज़ है। इसमें आम इन्सान नहीं आते।

उर्दू शायरी का पस-मंज़र पूरी ज़िंदगी है।

तंज़ का पौधा मुआशरती हैजान और सियासी कश्मकश की हवाओं में पनपता है।

समाजी कश्मकश से पैदा होने वाले अदब का जितना ज़ख़ीरा उर्दू में फ़राहम हो गया है, उतना शायद हिन्दुस्तान की किसी दूसरी ज़बान में नहीं है।

अदब की समाजी अहमियत उस वक़्त तक समझ में नहीं सकती, जब तक हम अदीब को बा-शऊर मानें।

शायद यह बहस कभी ख़त्म होगी कि नक़्क़ाद की ज़रूरत है भी या नहीं। बहस ख़त्म हो या हो, दुनिया में अदीब भी हैं और नक़्क़ाद भी।

सबसे ज़्यादा जो बुत इन्सान की राह में हायल होता है वो आबा-ओ-अज्दाद की तक़लीद और रस्म-ओ-रिवाज की पैरवी का बुत है। जिसने उसे तोड़ लिया उसके लिए आगे रास्ता साफ़ हो जाता है।

शायर और अदीब नक़्क़ाद की उंगली पकड़ कर नहीं चल सकता और नक़्क़ाद का यह काम है कि वे अदीब की आज़ादी में रुकावट डाले।

ज़िंदगी को नए तजुर्बों की राह पर डालना, बंधे-टके उसूलों से इन्हिराफ़ कर के ज़िंदगी में नई क़दरों की जुस्तजू करना बुत-शिकनी है।

ज़बान पहले पैदा हुई और रस्म-ए-ख़त बाद में। मैं इससे यह नतीजा निकालता हूँ कि ज़बान और रस्म-ए-ख़त में कोई बातिनी ताल्लुक़ नहीं है, बल्कि रस्मी है और अगर यह बात तस्लीम कर ली जाये तो ज़बान और रस्म-ए-ख़त के मुताल्लिक़ जो बहस जारी है वो महदूद हो सकती है।

समाजी कश्मकश से पैदा होने वाले अदब का जितना ज़ख़ीरा उर्दू में फ़राहम हो गया है उतना शायद हिन्दुस्तान की किसी‏ दूसरी ज़बान में नहीं है।

मुशायरा सदियों से बाज़ मुल्कों की अदबी ज़िंदगी का जुज़ रहा है, जो एक ख़ास मंज़िल पर पहुंच कर एक तहज़ीबी इदारे की शक्ल इख़्तियार कर गया।

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