मीर तस्कीन देहलवी के शेर
शब-ए-विसाल में सुनना पड़ा फ़साना-ए-ग़ैर
समझते काश वो अपना न राज़दार मुझे
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अभी इस राह से कोई गया है
कहे देती है शोख़ी नक़्श-ए-पा की
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जिस वक़्त नज़र पड़ती है उस शोख़ पे 'तस्कीं'
क्या कहिए कि जी में मेरे क्या क्या नहीं होता
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'तस्कीन' करूँ क्या दिल-ए-मुज़्तर का इलाज अब
कम-बख़्त को मर कर भी तो आराम न आया
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क़ासिद आया है वहाँ से तू ज़रा थम तो सही
बात तो करने दे उस से दिल-ए-बेताब मुझे
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करता हूँ तेरी ज़ुल्फ़ से दिल का मुबादला
हर-चंद जानता हूँ ये सौदा बुरा नहीं
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पूछे जो तुझ से कोई कि 'तस्कीं' से क्यूँ मिला
कह दीजो हाल देख के रहम आ गया मुझे
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इतनी न कीजे जाने की जल्दी शब-ए-विसाल
देखे हैं मैं ने काम बिगड़ते शिताब में
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कहे देती हैं ये नीची निगाहें
कि बाला-ए-ज़मीं क्या क्या न होगा
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ज़ब्त करता हूँ वले इस पर भी है ये जोश-ए-अश्क
गिर पड़ा जो आँख से क़तरा वो दरिया हो गया
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'तस्कीं' ने नाम ले के तिरा वक़्त-ए-मर्ग आह
क्या जाने क्या कहा था किसी ने सुना नहीं
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