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विशाल खुल्लर

1980 | लुधियाना, भारत

विशाल खुल्लर के शेर

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ग्रंथ इक प्रेम का पढ़ा मुझ को

और किताबों का ज्ञान रहने दे

आग दरिया को इशारों से लगाने वाला

अब के रूठा है बहुत मुझ को मनाने वाला

असीर-ए-ज़ुल्फ़ को शायद यहीं रिहाई है

पुकारता हूँ जिसे वो सदा में आया है

उसे तुम चाँद से तश्बीह देना

कि उस के हाथ में ख़ंजर खुला था

दिल जो अब शोर करता रहता है

किस क़दर बे-ज़बान था पहले

उसी के शेर सभी और उसी के अफ़्साने

उसी की प्यास का बादल घटा में आया है

मेरे दुख की दवा भी रखता है

ख़ुद को मुझ से जुदा भी रखता है

मैं इंसाँ था ख़ुदा होने से पहले

अनल-हक़ की अना होने से पहले

दीवार-ओ-दर सा चाहिए दीवार-ओ-दर मुझे

दीवानगी में याद नहीं अपना घर मुझे

लुत्फ़-ए-मंज़िल हौसलों से लगा था गाम गाम

तू सफ़र में साथ था तो रास्ता अच्छा लगा

वो जिस्म रूह ख़ला आसमान है क्या है

कि रंग कोई हो उस से जुदा नहीं मिलता

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