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पाकिस्तान के प्रमुखतम आलोचकों में विख्यात

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वज़ीर आग़ा के शेर

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वो ख़ुश-कलाम है ऐसा कि उस के पास हमें

तवील रहना भी लगता है मुख़्तसर रहना

खुली किताब थी फूलों-भरी ज़मीं मेरी

किताब मेरी थी रंग-ए-किताब उस का था

इतना पास कि तुझे ढूँडते फिरें

इतना दूर जा के हमा-वक़्त पास हो

या अब्र-ए-करम बन के बरस ख़ुश्क ज़मीं पर

या प्यास के सहरा में मुझे जीना सिखा दे

उस की आवाज़ में थे सारे ख़द-ओ-ख़ाल उस के

वो चहकता था तो हँसते थे पर-ओ-बाल उस के

सफ़र तवील सही हासिल-ए-सफ़र ये है

वहाँ को भूल गए और यहाँ को पहचाना

अजब तरह से गुज़ारी है ज़िंदगी हम ने

जहाँ में रह के कार-ए-जहाँ को पहचाना

या रब तिरी रहमत का तलबगार है ये भी

थोड़ी सी मिरे शहर को भी आब-ओ-हवा दे

रेत पर छोड़ गया नक़्श हज़ारों अपने

किसी पागल की तरह नक़्श मिटाने वाला

आहिस्ता बात कर कि हवा तेज़ है बहुत

ऐसा हो कि सारा नगर बोलने लगे

बंद उस ने कर लिए थे घर के दरवाज़े अगर

फिर खुला क्यूँ रह गया था एक दर मेरे लिए

मंज़र था राख और तबीअत उदास थी

हर-चंद तेरी याद मिरे आस पास थी

चलो अपनी भी जानिब अब चलें हम

ये रस्ता देर से सूना पड़ा है

ये किस हिसाब से की तू ने रौशनी तक़्सीम

सितारे मुझ को मिले माहताब उस का था

ख़ुद अपने ग़म ही से की पहले दोस्ती हम ने

और उस के बा'द ग़म-ए-दोस्ताँ को पहचाना

लाज़िम कहाँ कि सारा जहाँ ख़ुश-लिबास हो

मैला बदन पहन के इतना उदास हो

कैसे कहूँ कि मैं ने कहाँ का सफ़र किया

आकाश बे-चराग़ ज़मीं बे-लिबास थी

दिए बुझे तो हवा को किया गया बदनाम

क़ुसूर हम ने किया एहतिसाब उस का था

उम्र भर उस ने बेवफ़ाई की

उम्र से भी वो बा-वफ़ा रहा

धूप के साथ गया साथ निभाने वाला

अब कहाँ आएगा वो लौट के आने वाला

ऐसे बढ़े कि मंज़िलें रस्ते में बिछ गईं

ऐसे गए कि फिर कभी लौटना हुआ

कहने को चंद गाम था ये अरसा-ए-हयात

लेकिन तमाम उम्र ही चलना पड़ा तुझे

समेटता रहा ख़ुद को मैं उम्र-भर लेकिन

बिखेरता रहा शबनम का सिलसिला मुझ को

वो अपनी उम्र को पहले पिरो लेता है डोरी में

फिर उस के बा'द गिनती उम्र की दिन रात करता है

थी नींद मेरी मगर उस में ख़्वाब उस का था

बदन मिरा था बदन में अज़ाब उस का था

अब तो आराम करें सोचती आँखें मेरी

रात का आख़िरी तारा भी है जाने वाला

जबीं-ए-संग पे लिक्खा मिरा फ़साना गया

मैं रहगुज़र था मुझे रौंद कर ज़माना गया

पहना दे चाँदनी को क़बा अपने जिस्म की

उस का बदन भी तेरी तरह बे-लिबास हो

करना पड़ेगा अपने ही साए में अब क़याम

चारों तरफ़ है धूप का सहरा बिछा हुआ

ये कैसी आँख थी जो रो पड़ी है

ये कैसा ख़्वाब था जो बुझ गया है

क़िस्मत ही में रौशनी नहीं थी

बादल तो कभी का छट रहा था

किस की ख़ुशबू ने भर दिया था उसे

उस के अंदर कोई ख़ला रहा

सिखा दिया है ज़माने ने बे-बसर रहना

ख़बर की आँच में जल कर भी बे-ख़बर रहना

तीरगी बे-आबरू थी और तजल्ली बे-वक़ार

इक थका-हारा सा जुगनू किस क़दर दिल-गीर था

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