बिरयानी नहीं पकी है भाई
रशीदा का शौहर शहाब कारोबारी दौरे पर हांगकांग गया हुआ था। उसका एक पुर-रौनक़ इलाक़े की मार्केट में गारमेंटस का एक बड़ा सा स्टोर था जिसमें बच्चों के मलबूसात फ़रोख़्त किए जाते थे। स्टोर में तीन सेल्ज़-मेन काम करते थे एक लड़का भी था जो सफ़ाई-सुथराई और दूसरे छोटे-मोटे काम किया करता था। ये स्टोर इस लिहाज़ से मशहूर था कि इसकी हर वराइटी बाहर की होती थी।
अच्छी बात तो ये है कि हम पाकिस्तान में रहते हैं, हमें यहाँ ही की बनी हुई चीज़ें इस्तेमाल करने में फ़ख़्र महसूस होना चाहिए, मगर अक्सर लोगों को ये ग़लत-फ़हमी होती है कि बाहर की चीज़ें अच्छी होती हैं। ऐसे ही ग़लत-फ़हमी के शिकार लोगों की वजह से शहाब की दुकान पर ग्राहकों का ताँता बंधा रहता था और उसकी ख़ूब बिक्री होती थी। वो दुबई, चाइना, मलेशिया और हांगकांग जा कर ख़ुद माल लेकर आता था। हर महीने उसका एक चक्कर इन ममालिक में ज़रूर लगता था।
रशीदा और शहाब के दो बच्चे थे। अहमद दस साल का बेटा था और हरीम आठ साल की बेटी। अहमद बहुत अच्छा बच्चा था मगर ये माज़ी की बात थी। चंद दिनों से रशीदा महसूस करने लगी थी कि अहमद में तब्दीलियाँ आती जा रही थीं। ये तब्दीलियाँ अच्छी नहीं बल्कि बुरी थीं और इसी वजह से रशीदा उसकी तरफ़ से फ़िक्र-मंद रहने लगी थी।
वो पहले ज़िद नहीं करता था, अब बात-बात पर ज़िद करने लगा था, पहले वो उसकी हर बात मानता था, अब उसकी कोई बात नहीं मानता था बल्कि उससे बहस करने भी बैठ जाता था। पहले वो जो कुछ भी पकाती थी, ख़ामोशी से खा लेता था, मगर अब वो खाना खाने में भी नख़रे करने लगा था, ये क्यों पकाया वो क्यों नहीं पकाया...
रशीदा एक पढ़ी-लिखी समझदार औरत थी। उसने अपने बच्चों के साथ हमेशा प्यार-मुहब्बत और दोस्ती वाला सुलूक रवा रखा था। वो उनको हल्की-फुल्की डाँट तो पिला देती थी मगर उन पर हाथ कभी नहीं उठाती थी। अहमद के बदले हुए रवैय्ये ने उसे फ़िक्र-मंद कर दिया था। वो उसके रवैय्ये की तब्दीली के अस्बाब पर ग़ौर करने लगी तो उस पर ये इन्किशाफ़ हुआ कि जब से अहमद ने अस्र और मग़रिब के दरमयान बच्चों के साथ खेलने के लिए बाहर गली में जाना शुरू किया है, वो तब से ही बिगड़ गया है, इससे पहले वो ठीक था और तो और अब तो उसने मोबाइल के लिए भी ज़िद शुरू कर दी थी।
रशीदा ने सबसे पहला काम ये किया कि उसका घर से निकलना बंद कर दिया। इस पर उसने एहतिजाज किया और माँ से थोड़ी सी बदतमीज़ी भी की। रशीदा को उसकी बदतमीज़ी पर अफ़सोस भी हुआ और ग़ुस्सा भी आया। उस रात शहाब दुकान से घर आया तो रशीदा ने अहमद की हरकतों की शिकायत की। नतीजे में उसे बाप की जानिब से डाँट सुननी पड़ गई, वो बाप से डरता था, उसने घर से निकलना तो बंद कर दिया मगर उसकी ज़िदों में मज़ीद इज़ाफ़ा हो गया। ये ज़िद ज़्यादा-तर खानों के सिलसिले में होती थी।
शहाब को हांगकांग गए हुए पहला रोज़ था। अहमद और हरीम स्कूल से आ गए थे। उनके स्कूल एक हफ़्ते के लिए बंद हो गए थे। स्कूलों की छुट्टियों की वजह से हरीम बहुत ख़ुश थी, घर में आते ही उसने ये ख़बर रशीदा को सुनाई थी। अहमद ख़ामोशी से अपने कमरे में चला गया था। अपने कमरे में जब वो स्कूल के कपड़े बदल रहा था तो उसने खिड़की में से देखा उसके दोस्त गली में खेल रहे हैं। उसके दिल को एक धक्का सा लगा।
“एक ये बच्चे हैं कि दिन भर गलियों में खेलते फिरते हैं, एक मैं हूँ कि हर वक़्त घर में बंद रहता हूँ। मेरे लिए कितनी पाबंदियाँ हैं, या तो टीवी देखूँ, या खिलौनों से खेलूँ और या फिर बोर-बोर कहानियों की किताबें पढ़ता रहूँ। इन लोगों की अम्मियाँ कितनी अच्छी हैं, इन्हें कुछ नहीं कहतीं और एक मेरी अम्मी हैं, हर वक़्त पीछे पड़ी रहती हैं, ये करो ये मत करो।” उसने बड़ी हसरत से सोचा और किचन की जानिब बढ़ गया।
“भूक लगी है। आपने क्या पकाया है?” उसने बड़ी बे-रुख़ी से पूछा।
“आज मैं बहुत थक गई थी। कुछ पकाने को दिल नहीं चाह रहा था। मैंने दाल-चावल पका लिए हैं, शाम को कोई अच्छी चीज़ पका लूँगी।” उसकी अम्मी ने दाल में बघार देते हुए कहा।
“दाल-चावल?” अहमद ने तेज़ आवाज़ में कहा। “मैं तो दाल-चावल नहीं खाऊँगा। मेरे लिए बिरयानी पकाएँ।”
रशीदा को ग़ुस्सा नहीं आता था मगर अहमद के गुस्ताख लहजे से वो सख़्त तैश में आ गई। “तुम्हारे बाप ने मुझे नौकरानी नहीं रखा है कि मैं तुम्हारी मर्ज़ी पर चलूँ। खाना है तो खाओ, वर्ना दफ़ा हो जाओ।”
अहमद को महल्ले का एक दोस्त साजिद याद आ गया। साजिद ख़ुद भी बदतमीज़ था और बदतमीज़ दोस्तों को पसंद करता था। उसके वो दोस्त जो बदतमीज़ नहीं होते थे, वो उन्हें भी बदतमीज़ियाँ सिखा देता था। एक रोज़ उसने अहमद को बताया था कि जब उसकी अम्मी उसकी कोई बात नहीं मानतीं तो वो धमकी देता है कि वो घर छोड़ कर चला जाएगा। चूँकि वो इकलौता है, इसलिए उसकी अम्मी डर जाती हैं और उसकी बात मान लेती हैं। अहमद को साजिद की ये बात याद आई तो उसने भी इस तरकीब को आज़माने का फ़ैसला किया।
“अगर आपने बिरयानी नहीं पकाई तो मैं घर छोड़ कर चला जाऊँगा।” उसने चीख़ कर कहा...
उसकी बात सुनकर रशीदा सन्नाटे में आ गई। उसने हैरत से उसे देखा, उसका हाथ पकड़ कर ड्रॉइंग-रूम में लाई और सोफ़े पर बैठ कर बोली, “ये बात तुमने की तो क्यों की? घर छोड़ कर तुम कहाँ जाओगे?”
“मैं नानी के घर चला जाऊँगा। उनके घर का रास्ता मुझे मालूम है। मैं वहाँ से उस वक़्त तक नहीं आउंगा, जब तक आप बिरयानी नहीं पकाएँगी।”
“तुम्हारी नानी के घर तो मैं ख़ुद तुम्हें अभी छोड़ कर आती हूँ। लेकिन तुम्हें मुझसे एक वा’दा करना पड़ेगा कि जब तक मैं बिरयानी न पकाऊँ तुम घर में क़दम भी नहीं रखोगे।”
रशीदा जो ग़ुस्से से तिलमिला रही थी दाँत पीस कर बोली, “लेकिन अहमद ये वा’दा करने से पहले ख़ूब सोच समझ लेना, मैं तुम्हें अभी बता रही हूँ कि मैं बिरयानी नहीं पकाऊँगी।”
“तो फिर मैं भी वापिस नहीं आउँगा।” अहमद ने सीना तान कर बड़ी ढिटाई से जवाब दिया। रशीदा चंद लम्हे तक उसे घूरती रही, फिर उठी, जल्दी-जल्दी उसके कपड़े एक बैग में भर कर उसको बैग पकड़ाया और उसे गाड़ी में बिठा कर नानी के घर ले गई जो ज़्यादा दूर नहीं था। हरीम भी उसके साथ थी। गाड़ी में रशीदा ने हरीम को भी अहमद की गुस्ताख़ी के बारे में बता दिया था। हरीम बहुत अच्छी लड़की थी, उसने आज तक अपनी माँ से कोई बदतमीज़ी नहीं की थी। अहमद की हरकत के मुताल्लिक़ सुनकर उसे अफ़सोस हुआ था। वो अहमद से भी बहुत मुहब्बत करती थी।
उसने भाई को समझाने की कोशिश की मगर अहमद न माना और हरीम से बोला, “अगर मेरा इतना ही ख़्याल है तो अम्मी से कह कर बिरयानी पकवा लो। मैं घर छोड़ कर कहीं नहीं जाऊँगा।”
हरीम ख़ामोश हो गई। थोड़ी देर बाद वो लोग नानी के घर पहुँच गए। नानी के घर के ऊपर वाले पोर्शन में उनका बड़ा बेटा, उसकी बीवी और तीन बच्चे रहते थे। नानी माँ नीचे रहती थीं और अपना खाना-पकाना ख़ुद करती थीं। नानी ने जो रशीदा, अहमद और हरीम को देखा तो ख़ुश हो गईं। रशीदा और हरीम कुछ ख़ामोश-ख़ामोश सी थीं। ये बात नानी ने महसूस तो कर ली थी, मगर उन्होंने कुछ पूछा नहीं।
रशीदा ने अपनी माँ से कहा, “स्कूल एक हफ़्ते के लिए बंद हो गए हैं। अहमद को मैं आपके पास छोड़ने आई हूँ।”
इस ख़बर से नानी माँ मज़ीद ख़ुश हो गईं। कुछ देर बाद बोलीं, “हरीम को भी यहीं छोड़ देतीं। इसका भी तो स्कूल बंद हो गया होगा।”
“हरीम को यहाँ छोड़ा तो फिर मैं घर में अकेली रह जाऊँगी। इनके पापा बाहर गए हुए हैं।”
इतनी देर में मामूँ के तीनों बच्चे भी आ गए। हरीम और अहमद को देख कर उन्होंने मुसर्रत का इज़हार किया। इन बच्चों में सिर्फ अस्मा ही थी जो हरीम की हम-उम्र थी। वो हरीम को अपने कमरे में ले गई और उसे अपनी गुड़िया दिखाने लगी जो वो कल ही अपने बाप के साथ जा कर लाई थी। बातों ही बातों में हरीम ने अस्मा को अहमद की कारस्तानी से आगाह कर दिया। उसने उसे ये भी बता दिया कि अहमद जब तक वापिस घर नहीं जाएगा जब तक अम्मी बिरयानी न पका लें। वो ज़िद में आ गया है।
“अहमद भाई पहले तो ऐसे नहीं थे। अब उन्हें क्या हो गया है?” अस्मा ने हैरत से पूछा।
“अम्मी का ख़्याल है कि उनके दोस्त उन्हें बुरी-बुरी बातें सिखाते हैं। वाक़ई वो पहले ऐसे नहीं थे। जबसे महल्ले के चंद नए लड़कों से उनकी दोस्ती हुई है वो ऐसे ही हो गए हैं।”
“हमारे पापा हमें बताते हैं कि भाई-बहन आपस में बेहतरीन दोस्त होते हैं। पहले जैसा ज़माना नहीं रहा। उस वक़्त दोस्त भी अच्छे होते थे। अब तो अच्छे दोस्त बहुत कम मिलते हैं।”
रशीदा ने अहमद की बदतमीज़ी का तज़किरा अपनी माँ से भी नहीं किया था क्योंकि इससे अहमद की बे-इज़्ज़ती होती, मगर हरीम ने ये बात अस्मा को बता दी थी और जब रशीदा हरीम को लेकर वापिस चली गई तो अस्मा ने ये बात अपने घर वालों को बता दी। अहमद के मामूँ के बच्चों को जब ये पता चला कि अहमद इस क़दर बदतमीज़ हो गया है, ज़िद करता है, अपनी अम्मी से ज़बान चलाता है और बुरे लड़कों से दोस्ती रखता है तो वो एक दम से अहमद से खिंचने लगे।
अहमद ने ये बात महसूस कर ली थी। उसने अस्मा के भाई फ़हीम से इसका सबब पूछा तो उसने साफ़-साफ़ बता दिया कि वो किस वजह से उससे बात नहीं कर रहे। अहमद को बड़ी शर्मिंदगी महसूस हुई। रशीदा अपनी माँ को बता गई थी कि अहमद ने खाना नहीं खाया है। नानी माँ ने अपने लिए खिचड़ी पकाई थी, वो उन्होंने अहमद को दी तो उसने चुप-चाप खा ली। फिर वो बिस्तर पर लेट गया। उसका दिल उदास था। उसे कुछ-कुछ एहसास होने लगा था कि वो ग़लती पर था, इससे पहले कि ये एहसास बढ़ता, उसे नींद आ गई।
शाम को आँख खुली, वो कमरे से बाहर आया। मामूँ के बच्चे उसे देख कर इधर-उधर हो गए। उसका दिल कट कर रह गया।
“ये लोग मुझे बुरा लड़का समझते हैं, इसीलिए बात करना पसंद नहीं कर रहे।” उसने उदासी से सोचा। उसे अपनी अम्मी और हरीम याद आने लगी थीं। उसका दिल चाह रहा था कि उड़ कर घर पहुँच जाये। उसके दिल में एक उम्मीद सी थी कि शायद अम्मी ने रात के खाने में बिरयानी पका ली हो।
वो नानी माँ के पास आया। “नानी माँ। मेरी बात हरीम से करवा दीजिए।” उसने बड़े अदब से कहा।
नानी माँ ने रशीदा का नंबर मिलाया और मोबाइल अहमद को थमा दिया। दूसरी तरफ़ रशीदा थी। “मुझे हरीम से बात करनी है।” उसने बड़े कमज़ोर से लहजे में कहा।
थोड़ी देर बाद उसके कानों में हरीम की आवाज़ आई, “अहमद भाई। बड़े मज़े आ रहे हैं। अकेले ही अकेले चले गए, झूटे मुँह भी हमसे नहीं पूछा कि हरीम तुम भी नानी माँ के यहाँ रह लो।” हरीम ने शोख़ आवाज़ में कहा।
अहमद ने सुनी अन-सुनी कर के कहा, “हरीम, क्या रात के खाने में बिरयानी पकी है?”
चूँकि उसने हरीम की बात का जवाब नहीं दिया था, इस बात से वो चिड़ गई और झुंजला कर बोली, “बिरयानी नहीं पकी है भाई। अपनी ज़िद छोड़ क्यों नहीं देते?”
अहमद ने उसकी अगली बात नहीं सुनी और मायूसी से फ़ोन बंद कर के नानी माँ को दे दिया। रात को मामूँ आए। उन्होंने अहमद को देखकर ख़ुशी का इज़हार किया फिर बोले, “मियाँ, रात का खाना तुम हमारे साथ खाओगे।” अपने मामूँ-ज़ाद भाई बहनों का तल्ख़ रवैय्या अहमद को याद आ गया था। उसने कहा, “शुक्रिया मामूँ जान। नानी माँ ने मेरे लिए दाल-चावल बना लिए हैं, मैं उनके साथ ही खाना खाऊँगा”
रात जब वो सोने लगा तो उसका दिल भर आया। उसे अपनी अम्मी की याद आने लगी थी। उसकी आँखों में आँसू आ गए। उसे रह रह कर अपने रवैय्ये पर अफ़सोस हो रहा था। उसे एहसास हो गया था कि ग़लती उसी की थी। उसकी अम्मी उससे कितना प्यार करती थीं, उसकी छोटी-छोटी ज़रूरियात का भी हद से ज़्यादा ख़्याल रखती थीं। उसकी हर सालगिरह बड़ी धूम-धाम से मनाने के इंतिज़ामात करती थीं। बाज़ार जातीं तो उसके लिए तरह-तरह के खिलौने ख़रीद कर लाती थीं। उनकी इस मुहब्बत और तवज्जो का उसने ये सिला दिया कि उनसे तेज़ आवाज़ में बात करने लगा, उनकी बातें मानना छोड़ दीं।
“किस क़दर बुरा किया था मैंने।” उसके मुँह से बे-इख़्तियार निकला और इस शदीद शर्मिंदगी के एहसास से मग़्लूब हो कर उसने ज़ोर-ज़ोर से रोना शुरू कर दिया। नानी माँ परेशान हो कर उसके पास आ गईं। रोने की आवाज़ इतनी तेज़ थी कि मामूँ, मुमानी और उनके तीनों बच्चे भी नीचे आ गए।
“क्या हुआ अहमद? तुम रो क्यों रहे हो?”। मामूँ ने घबरा कर पूछा।
“मुझे अम्मी याद आ रही हैं। मैंने अपनी बुरी हरकतों से उन्हें नाराज़ कर दिया है। मैं शर्मिंदा हूँ। मुझे उनके पास ले चलिए। मैं उनसे माफ़ी माँगूँगा। मैं उनसे ये वा’दा भी करूँगा कि आइन्दा एक अच्छा बच्चा बन कर दिखाऊँगा और किसी क़िस्म की कोई ज़िद नहीं करूँगा।”
मामूँ जान ने उसी वक़्त गाड़ी निकाली। गाड़ी में नानी माँ, मामूँ जान, मुमानी, उनके तीनों बच्चे और अहमद ठुस-ठुसा कर बैठ गए और थोड़ी ही देर में रशीदा के घर पहुँच गए। रशीदा को देखते ही अहमद दौड़ कर उससे लिपट गया।
“अम्मी मुझे माफ़ कर दीजिए। अब मैं आपको एक अच्छा बच्चा बन कर दिखाऊँगा। मैं वा’दा करता हूँ।”
रशीदा ने उसको प्यार से ख़ुद से लिपटा लिया। “जानते हो अहमद जब से तुम गए हो मैंने न दोपहर का खाना खाया है और न ही रात का। मुझे ख़ुशी है कि तुम्हें अपनी ग़लती का एहसास हो गया है। याद रखो, माँ बाप अपने बच्चों से जो कहते हैं, उसमें बच्चों की ही भलाई होती है।”
अहमद के सीधे रास्ते पर आ जाने से सब लोगों को बहुत ख़ुशी हुई। रशीदा उन लोगों के लिए चाय बनाने किचन में चली गई। सारे बच्चे एक दूसरे से बातों में मसरूफ़ हो गए। अहमद अपने दिल में सोच रहा था कि जब मैं एक बुरा लड़का था तो मामूँ जान के बच्चे मुझसे खिंचे-खिंचे थे, अब मैं अच्छा बन गया हूँ तो ये मेरे दोस्त बन गए हैं और मुझसे घुल-मिल कर बातें कर रहे हैं। सच है बुरी आदतों के बच्चों से कोई प्यार नहीं करता, अच्छे बच्चों को सब पसंद करते हैं। वो ख़ुशी महसूस कर रहा था कि अब वो भी अच्छा बच्चा बन गया है।
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