अलीना इतरत के शेर
शदीद धूप में सारे दरख़्त सूख गए
बस इक दुआ का शजर था जो बे-समर न हुआ
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उदासी शाम तन्हाई कसक यादों की बेचैनी
मुझे सब सौंप कर सूरज उतर जाता है पानी में
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कोई आवाज़ न आहट न कोई हलचल है
ऐसी ख़ामोशी से गुज़रे तो गुज़र जाएँगे
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कोई मिला ही नहीं जिस से हाल-ए-दिल कहते
मिला तो रह गए लफ़्ज़ों के इंतिख़ाब में हम
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अपनी मुट्ठी में छुपा कर किसी जुगनू की तरह
हम तिरे नाम को चुपके से पढ़ा करते हैं
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हिज्र की रात और पूरा चाँद
किस क़दर है ये एहतिमाम ग़लत
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ज़िंदा रहने की ये तरकीब निकाली मैं ने
अपने होने की ख़बर सब से छुपा ली मैं ने
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इश्क़ में फ़िक्र तो दीवाना बना देती है
प्यार को अक़्ल नहीं दिल की पनाहों में रखो
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ठीक है जाओ तअ'ल्लुक़ न रखेंगे हम भी
तुम भी वा'दा करो अब याद नहीं आओगे
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बा'द मुद्दत मुझे नींद आई बड़े चैन की नींद
ख़ाक जब ओढ़ ली जब ख़ाक बिछा ली मैं ने
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जब भी फ़ुर्सत मिली हंगामा-ए-दुनिया से मुझे
मेरी तन्हाई को बस तेरा पता याद आया
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अभी तो चाक पे जारी है रक़्स मिट्टी का
अभी कुम्हार की निय्यत बदल भी सकती है
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हर एक सज्दे में दिल को तिरा ख़याल आया
ये इक गुनाह इबादत में बार बार हुआ
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जिन के मज़बूत इरादे बने पहचान उन की
मंज़िलें आप ही हो जाती हैं आसान उन की
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तुझ को आवाज़ दूँ और दूर तलक तू न मिले
ऐसे सन्नाटों से अक्सर मुझे डर लगता है
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हम हवा से बचा रहे थे जिन्हें
उन चराग़ों से जल गए शायद
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ख़्वाहिशें ख़्वाब दिखाती हैं तिरे मिलने का
ख़्वाब से कह दे कि ता'बीर की सूरत आए
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मिरे वजूद में शामिल था वो हवा की तरह
सो हर तरफ़ था मिरे बस मिरी नज़र में न था
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बिन आवाज़ पुकारें हर-दम नाम तिरा
शायद हम भी पागल होने वाले हैं
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बंद रहते हैं जो अल्फ़ाज़ किताबों में सदा
गर्दिश-ए-वक़्त मिटा देती है पहचान उन की
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शदीद धूप में सारे दरख़्त सूख गए
बस इक दुआ का शजर था जो बे-समर न हुआ
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दिल के गुलशन में तिरे प्यार की ख़ुश्बू पा कर
रंग रुख़्सार पे फूलों से खिला करते हैं
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जाने कब कैसे गिरफ़्तार-ए-मोहब्बत हुए हम
जाने कब ढल गए इक़रार में इंकार के रंग
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फिर ज़मीं खींच रही है मुझे अपनी जानिब
मैं रुकूँ कैसे के पर्वाज़ अभी बाक़ी है
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तेरी चाहत है ख़्वाब-ए-पाकीज़ा
इक इबादत जो बा-वज़ू होगी
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किसी के वास्ते तस्वीर-ए-इंतिज़ार थे हम
वो आ गया प कहाँ ख़त्म इंतिज़ार हुआ
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अजब सी कशमकश तमाम उम्र साथ साथ थी
रखा जो रूह का भरम तो जिस्म मेरा मर गया
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गर्मी-ए-इश्क़ खिला देती है गालों पे गुलाब
याद आते हैं जो लम्हात गई रातों के
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मौसम-ए-गुल पर ख़िज़ाँ का ज़ोर चल जाता है क्यूँ
हर हसीं मंज़र बहुत जल्दी बदल जाता है क्यूँ
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गहरे समुंदरों में उतरने की ले के आस
बैठे हुए है एक किनारे हमारे ख़्वाब
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बंदिशों को तोड़ने की कोशिशें करती हुई
सर पटकती लहर तेरी आजिज़ी अच्छी लगी
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वो इक चराग़ जो जलता है रौशनी के लिए
उसी के ज़ेर-ए-तहफ़्फ़ुज़ है तीरगी का वजूद
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अब भी अक्सर शब-ए-तन्हाई में कुछ तहरीरें
चाँद के अक्स से हो जाती हैं रौशन रौशन
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अयाँ थे जज़्बा-ए-दिल और बयाँ थे सारे ख़याल
कोई भी पर्दा न था जब के थे हिजाब में हम
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अँधेरी शब का ये ख़्वाब-मंज़र मुझे उजालों से भर रहा है
तो रात इतनी तवील कर दे कि ता-क़यामत सहर न आए
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ज़ात में जिस की हो ठहराव ज़मीं की मानिंद
फ़िक्र में उस की समुंदर की सी वुसअ'त होगी
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झूटा समाज रस्म-ओ-रिवायात सरहदें
अब भी हैं राह-ए-इश्क़ में दीवार की तरह
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ढली जो शाम तो मुझ में सिमट गया जैसे
क़रार पाने समुंदर में आफ़्ताब उतरे
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आज परवाज़ ख़यालों की जुदा सी पाई
आज फिर भूली हुई याद किसी की आई
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कूज़ा-गर ने जब मेरी मिटी से की तख़्लीक़-ए-नौ
हो गए ख़ुद जज़्ब मुझ में आग और पानी हवा
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आज जब चाँदनी उतरी थी मिरे आँगन में
चाँद किस लम्हा हुआ मुझ से ख़फ़ा याद आया
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हुस्न-ओ-जमाल-ओ-ज़ीस्त की आराइशें फ़ुज़ूल
इश्क़-ओ-जुनूँ की आग जो दिल में जवाँ न हो
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कुछ कड़े टकराओ दे जाती है अक्सर रौशनी
जूँ चमक उठती है कोई बर्क़ तलवारों के बेच
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