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मुशायरों में लोकप्रिय, प्रसिद्ध कवयित्री

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अलीना इतरत के शेर

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शदीद धूप में सारे दरख़्त सूख गए

बस इक दुआ का शजर था जो बे-समर हुआ

उदासी शाम तन्हाई कसक यादों की बेचैनी

मुझे सब सौंप कर सूरज उतर जाता है पानी में

कोई आवाज़ आहट कोई हलचल है

ऐसी ख़ामोशी से गुज़रे तो गुज़र जाएँगे

कोई मिला ही नहीं जिस से हाल-ए-दिल कहते

मिला तो रह गए लफ़्ज़ों के इंतिख़ाब में हम

अपनी मुट्ठी में छुपा कर किसी जुगनू की तरह

हम तिरे नाम को चुपके से पढ़ा करते हैं

हिज्र की रात और पूरा चाँद

किस क़दर है ये एहतिमाम ग़लत

ज़िंदा रहने की ये तरकीब निकाली मैं ने

अपने होने की ख़बर सब से छुपा ली मैं ने

इश्क़ में फ़िक्र तो दीवाना बना देती है

प्यार को अक़्ल नहीं दिल की पनाहों में रखो

ठीक है जाओ तअ'ल्लुक़ रखेंगे हम भी

तुम भी वा'दा करो अब याद नहीं आओगे

बा'द मुद्दत मुझे नींद आई बड़े चैन की नींद

ख़ाक जब ओढ़ ली जब ख़ाक बिछा ली मैं ने

जब भी फ़ुर्सत मिली हंगामा-ए-दुनिया से मुझे

मेरी तन्हाई को बस तेरा पता याद आया

अभी तो चाक पे जारी है रक़्स मिट्टी का

अभी कुम्हार की निय्यत बदल भी सकती है

हर एक सज्दे में दिल को तिरा ख़याल आया

ये इक गुनाह इबादत में बार बार हुआ

जिन के मज़बूत इरादे बने पहचान उन की

मंज़िलें आप ही हो जाती हैं आसान उन की

तुझ को आवाज़ दूँ और दूर तलक तू मिले

ऐसे सन्नाटों से अक्सर मुझे डर लगता है

हम हवा से बचा रहे थे जिन्हें

उन चराग़ों से जल गए शायद

ख़्वाहिशें ख़्वाब दिखाती हैं तिरे मिलने का

ख़्वाब से कह दे कि ता'बीर की सूरत आए

मिरे वजूद में शामिल था वो हवा की तरह

सो हर तरफ़ था मिरे बस मिरी नज़र में था

बिन आवाज़ पुकारें हर-दम नाम तिरा

शायद हम भी पागल होने वाले हैं

लो हमारा जवाब ले जाओ

ये महकता गुलाब ले जाओ

बंद रहते हैं जो अल्फ़ाज़ किताबों में सदा

गर्दिश-ए-वक़्त मिटा देती है पहचान उन की

शदीद धूप में सारे दरख़्त सूख गए

बस इक दुआ का शजर था जो बे-समर हुआ

दिल के गुलशन में तिरे प्यार की ख़ुश्बू पा कर

रंग रुख़्सार पे फूलों से खिला करते हैं

जाने कब कैसे गिरफ़्तार-ए-मोहब्बत हुए हम

जाने कब ढल गए इक़रार में इंकार के रंग

फिर ज़मीं खींच रही है मुझे अपनी जानिब

मैं रुकूँ कैसे के पर्वाज़ अभी बाक़ी है

तेरी चाहत है ख़्वाब-ए-पाकीज़ा

इक इबादत जो बा-वज़ू होगी

किसी के वास्ते तस्वीर-ए-इंतिज़ार थे हम

वो गया कहाँ ख़त्म इंतिज़ार हुआ

अजब सी कशमकश तमाम उम्र साथ साथ थी

रखा जो रूह का भरम तो जिस्म मेरा मर गया

गर्मी-ए-इश्क़ खिला देती है गालों पे गुलाब

याद आते हैं जो लम्हात गई रातों के

मौसम-ए-गुल पर ख़िज़ाँ का ज़ोर चल जाता है क्यूँ

हर हसीं मंज़र बहुत जल्दी बदल जाता है क्यूँ

गहरे समुंदरों में उतरने की ले के आस

बैठे हुए है एक किनारे हमारे ख़्वाब

बंदिशों को तोड़ने की कोशिशें करती हुई

सर पटकती लहर तेरी आजिज़ी अच्छी लगी

वो इक चराग़ जो जलता है रौशनी के लिए

उसी के ज़ेर-ए-तहफ़्फ़ुज़ है तीरगी का वजूद

अब भी अक्सर शब-ए-तन्हाई में कुछ तहरीरें

चाँद के अक्स से हो जाती हैं रौशन रौशन

अयाँ थे जज़्बा-ए-दिल और बयाँ थे सारे ख़याल

कोई भी पर्दा था जब के थे हिजाब में हम

अँधेरी शब का ये ख़्वाब-मंज़र मुझे उजालों से भर रहा है

तो रात इतनी तवील कर दे कि ता-क़यामत सहर आए

ज़ात में जिस की हो ठहराव ज़मीं की मानिंद

फ़िक्र में उस की समुंदर की सी वुसअ'त होगी

झूटा समाज रस्म-ओ-रिवायात सरहदें

अब भी हैं राह-ए-इश्क़ में दीवार की तरह

ढली जो शाम तो मुझ में सिमट गया जैसे

क़रार पाने समुंदर में आफ़्ताब उतरे

आज परवाज़ ख़यालों की जुदा सी पाई

आज फिर भूली हुई याद किसी की आई

कूज़ा-गर ने जब मेरी मिटी से की तख़्लीक़-ए-नौ

हो गए ख़ुद जज़्ब मुझ में आग और पानी हवा

आज जब चाँदनी उतरी थी मिरे आँगन में

चाँद किस लम्हा हुआ मुझ से ख़फ़ा याद आया

हुस्न-ओ-जमाल-ओ-ज़ीस्त की आराइशें फ़ुज़ूल

इश्क़-ओ-जुनूँ की आग जो दिल में जवाँ हो

कुछ कड़े टकराओ दे जाती है अक्सर रौशनी

जूँ चमक उठती है कोई बर्क़ तलवारों के बेच

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