आजिज़ी पर शेर
आजिज़ी ज़िंदगी गुज़ारने
की एक सिफ़त है जिस में आदमी अपनी ज़ात में ख़ुद पसंदी का शिकार नहीं होता। शायरी में आजिज़ी अपनी बे-श्तर शक्लों में आशिक़ की आजिज़ी है जिस का इज़हार माशूक़ के सामने होता है। माशूक़ के सामने आशिक़ अपनी ज़ात को मुकम्मल तौर पर फ़ना कर देता और यही आशिक़ के किर्दार की बड़ाई है।
कुशादा दस्त-ए-करम जब वो बे-नियाज़ करे
नियाज़-मंद न क्यूँ आजिज़ी पे नाज़ करे
ज़िंदा रखीं बुज़ुर्गों की हम ने रिवायतें
दुश्मन से भी मिले तो मिले आजिज़ी से हम
अश्क अगर सब ने लिखे मैं ने सितारे लिक्खे
आजिज़ी सब ने लिखी मैं ने इबादत लिक्खा
मर्तबा आज भी ज़माने में
प्यार से आजिज़ी से मिलता है
इस तरह मुंसलिक हुआ उर्दू ज़बान से
मिलता हूँ अब सभी से बड़ी आजिज़ी के साथ
ग़ुरूर भी जो करूँ मैं तो आजिज़ी हो जाए
ख़ुदी में लुत्फ़ वो आए कि बे-ख़ुदी हो जाए
कोई ख़ुद से मुझे कमतर समझ ले
ये मतलब भी नहीं है आजिज़ी का
आजिज़ी आज है मुमकिन है न हो कल मुझ में
इस तरह ऐब निकालो न मुसलसल मुझ में
मुझ को सादात की निस्बत के सबब मेरे ख़ुदा
आजिज़ी देना तकब्बुर की अदा मत देना
बंदिशों को तोड़ने की कोशिशें करती हुई
सर पटकती लहर तेरी आजिज़ी अच्छी लगी
इज्ज़ के साथ चले आए हैं हम 'यज़्दानी'
कोई और उन को मना लेने का ढब याद नहीं
आजिज़ी बख़्शी गई तमकनत-ए-फ़क़्र के साथ
देने वाले ने हमें कौन सी दौलत नहीं दी
अब देखना है मुझ को तिरे आस्ताँ का ज़र्फ़
सर को झुका रहा हूँ बड़ी आजिज़ी के साथ
मिन्नत-ओ-आजिज़ी ओ ज़ारी-ओ-आह
तेरे आगे हज़ार कर देखा
रगड़ी हैं एड़ियाँ तो हुई है ये मुस्तजाब
किस आजिज़ी से की है दुआ कुछ न पूछिए
आजिज़ी कहने लगी गर हो बुलंदी की तलब
दिल झुका दाइरा-ए-ना'रा-ए-तकबीर में आ
पेड़ हो या कि आदमी 'ग़ाएर'
सर-बुलंद अपनी आजिज़ी से हुआ
ओ आँख बदल के जाने वाले
कुछ ध्यान किसी की आजिज़ी का
कभी थी वो ग़ुस्से की चितवन क़यामत
कभी आजिज़ी से मनाना किसी का
इस आजिज़ी से किया उस ने मेरे सर का सवाल
ख़ुद अपने हाथ से तलवार तोड़ दी मैं ने
बराए अहल-ए-जहाँ लाख कज-कुलाह थे हम
गए हरीम-ए-सुख़न में तो आजिज़ी से गए
ख़ुदाया आजिज़ी से मैं ने माँगा क्या मिला क्या
असर मेरी दुआओं का ये उल्टा क्यूँ हुआ है
वो मनाएगा जिस से रूठे हो
हम को मिन्नत से आजिज़ी से ग़रज़
ये नक़्श-ए-ख़ुशनुमा दर-अस्ल नक़्श-ए-आजिज़ी है
कि अस्ल-ए-हुस्न तो अंदेशा-ए-बहज़ाद में है