मीर मोहम्मदी बेदार
ग़ज़ल 96
अशआर 45
अबस मल मल के धोता है तू अपने दस्त-ए-नाज़ुक को
नहीं जाने की सुर्ख़ी हाथ से ख़ून-ए-शहीदाँ की
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नश्शे में जी चाहता है बोसा-बाज़ी कीजिए
इतनी रुख़्सत दीजिए बंदा-नवाज़ी कीजिए
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हवास-ओ-होश को छोड़ आप दिल गया उस पास
जब अहल-ए-फ़ौज ही मिल जाएँ क्या सिपाह करे
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