अज़ीज़ क़ैसी के शेर
आह-ए-बे-असर निकली नाला ना-रसा निकला
इक ख़ुदा पे तकिया था वो भी आप का निकला
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दिलों का ख़ूँ करो सालिम रखो गरेबाँ को
जुनूँ की रस्म ज़माना हुआ उठा दी है
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क्या हाथ उठाइए दुआ को
हम हाथ उठा चुके दुआ से
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कई बार दौर-ए-कसाद में गिरे मेहर-ओ-माह के दाम भी
मगर एक क़ीमत-ए-जिंस-ए-दिल जो खरी रही तो खरी रही
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चल 'क़ैसी' मेले में चल क्या रोना तन्हाई का
कोई नहीं जब तेरा मेरा सब मेरे सब तेरे
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इक नवा-ए-रफ़्ता की बाज़गश्त थी 'क़ैसी'
दिल जिसे समझते थे दश्त-ए-बे-सदा निकला
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ये रास रंग ये मेल मिलन इक हाथ में चाँद इक में सूरज
इक रात का मौज मज़ा सारा इक दिन का सैर-सपाटा है
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जो ज़ख़्म दोस्तों ने दिए हैं वो छुप तो जाएँ
पर दुश्मनों की सम्त से पत्थर कोई तो आए
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जितने थे रंग हुस्न-ए-बयाँ के बिगड़ गए
लफ़्ज़ों के बाग़ शहर की सूरत उजड़ गए
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अजीब शहर है घर भी हैं रास्तों की तरह
किसे नसीब है रातों को छुप के रोना भी
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नज़र उठाओ तो झूम जाएँ नज़र झुकाओ तो डगमगाएँ
तुम्हारी नज़रों से सीखते हैं तरीक़ मौत-ओ-हयात के हम
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तुझे सीने से लगा लूँ तुझे दिल में रख लूँ
दर्द की छाँव में ज़ख़्मों की अमाँ में आ जा
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आप को देख कर देखता रह गया
क्या कहूँ और कहने को क्या रह गया
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अब तो फ़क़त बदन की मुरव्वत है दरमियाँ
था रब्त-ए-जान-ओ-दिल तो शुरूआ'त ही में था
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