एहसान दरबंगावी के शेर
शौक़ के मुम्किनात को दोनों ही आज़मा चुके
तुम भी फ़रेब खा चुके हम भी फ़रेब खा चुके
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शायद अभी बाक़ी है कुछ आग मोहब्बत की
माज़ी की चिताओं से उठता है धुआँ 'एहसाँ'
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तुम इस तरफ़ से गुज़र चुकी हो मगर गली गुनगुना रही है
तुम्हारी पाज़ेब का वो नग़्मा फ़ज़ा में अब तक खनक रहा है
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नज़र आती है सारी काएनात-ए-मै-कदा रौशन
ये किस के साग़र-ए-रंगीं से फूटी है किरन साक़ी
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बड़ी मुश्किलों से काटा बड़े कर्ब से गुज़ारा
तिरे ब'अद कोई लम्हा जो मिला कभी ख़ुशी का
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