मनमोहन तल्ख़
ग़ज़ल 34
नज़्म 4
अशआर 14
बार-हा ख़ुद पे मैं हैरान बहुत होता हूँ
कोई है मुझ में जो बिल्कुल ही जुदा है मुझ से
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मैं ख़ुद में गूँजता हूँ बन के तेरा सन्नाटा
मुझे न देख मिरी तरह बे-ज़बाँ बन कर
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ये अब घरों में न पानी न धूप है न जगह
ज़मीं ने 'तल्ख़' ये शहरों को बद-दुआ दी है
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ये 'तल्ख़' किया क्या है ख़ुद से भी गए तुम तो
मरना ही किसी पर था तुम ख़ुद पे मरे होते
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साबित ये मैं करूँगा कि हूँ या नहीं हूँ मैं
वहम ओ यक़ीं का कोई दो-राहा नहीं हूँ मैं
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