मनमोहन तल्ख़ के शेर
दुनिया मेरी ज़िंदगी के दिन कम करती जाती है क्यूँ
ख़ून पसीना एक किया है ये मेरी मज़दूरी है
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बार-हा ख़ुद पे मैं हैरान बहुत होता हूँ
कोई है मुझ में जो बिल्कुल ही जुदा है मुझ से
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मैं ख़ुद में गूँजता हूँ बन के तेरा सन्नाटा
मुझे न देख मिरी तरह बे-ज़बाँ बन कर
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ये 'तल्ख़' किया क्या है ख़ुद से भी गए तुम तो
मरना ही किसी पर था तुम ख़ुद पे मरे होते
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ये अब घरों में न पानी न धूप है न जगह
ज़मीं ने 'तल्ख़' ये शहरों को बद-दुआ दी है
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साबित ये मैं करूँगा कि हूँ या नहीं हूँ मैं
वहम ओ यक़ीं का कोई दो-राहा नहीं हूँ मैं
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शिकायत और तो कुछ भी नहीं इन आँखों से
ज़रा सी बात पे पानी बहुत बरसता है
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सब के सो जाने पे अफ़्लाक से क्या कहता है
रात को एक परिंदे की सदा सुनता हूँ
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हर शक्ल रफ़्ता रफ़्ता अंजान हो गई है
मुश्किल थी जो भी जिस की आसान हो गई है
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हम कई रोज़ से बे-वजह बहुत ख़ुश हैं चलो
ज़िंदगी की ये अदाएँ भी तो देखी जाएँ
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अज़-रोज़-ए-अज़ल है कि नहीं है का है महशर
और इस का जवाब आज भी हाँ भी है नहीं भी
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ये दिल अब मुझ से थोड़ी देर सुस्ताने को कहता है
और आँखें मूँद कर हर बात दोहराने को कहता है
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कोई जिस बात से ख़ुश है तो ख़फ़ा दूसरा है
कुछ भी कहने में किसी से यही दुश्वारी है
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किसी के साथ न होने के दुख भी झेले हैं
किसी के साथ मगर और भी अकेले हैं
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