शहज़ाद अहमद के शेर
अब अपने चेहरे पर दो पत्थर से सजाए फिरता हूँ
आँसू ले कर बेच दिया है आँखों की बीनाई को
ठहर गई है तबीअत इसे रवानी दे
ज़मीन प्यास से मरने लगी है पानी दे
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जो सामने था उस के ख़द-ओ-ख़ाल नहीं याद
वो याद रहा जिस को ज़रा देख लिया है
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मैं तिरा कुछ भी नहीं हूँ मगर इतना तो बता
देख कर मुझ को तिरे ज़ेहन में आता क्या है
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बिगड़ी हुई इस शहर की हालत भी बहुत है
जाऊँ भी कहाँ इस से मोहब्बत भी बहुत है
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हर दम तिरी शबीह थी आँखों के सामने
तन्हा भी हम नहीं थे तिरे साथ भी न थे
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करो बे-नूर महफ़िल-ए-इमरोज़
तुर्बतों पर दिए जलाते रहो
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ज़रा सा ग़म हुआ और रो दिए हम
बड़ी नाज़ुक तबीअत हो गई है
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तू कुछ भी हो कब तक तुझे हम याद करेंगे
ता-हश्र तो ये दिल भी धड़कता न रहेगा
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उम्र जितनी भी कटी उस के भरोसे पे कटी
और अब सोचता हूँ उस का भरोसा क्या था
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ख़ुद पर भी खोलिए न कभी दिल की वारदात
आईना सामने हो तो चेहरा छुपाइए
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यार होते तो मुझे मुँह पे बुरा कह देते
बज़्म में मेरा गिला सब ने किया मेरे बाद
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इक आग फिर भड़क उट्ठी है दीदा ओ दिल में
कुछ अश्क फिर सर-ए-मिज़्गाँ दिखाई देते हैं
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कोई बताओ कि किस के लिए तलाश करें
जहाँ छुपी हैं बहारें हमें ख़बर ही सही
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दस बजे रात को सो जाते हैं ख़बरें सुन कर
आँख खुलती है तो अख़बार तलब करते हैं
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जिस से दो रोज़ भी खुल कर न मुलाक़ात हुई
मुद्दतों ब'अद मिले भी तो गिला कैसे हो
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सफ़र-ए-शौक़ है बुझते हुए सहराओं में
आग मरहम है मिरे पाँव के छालों के लिए
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वो ख़ुश-नसीब थे जिन्हें अपनी ख़बर न थी
याँ जब भी आँख खोलिए अख़बार देखिए
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आगे निकल गए वो मुझे देखते हुए
जैसे मैं आदमी न हुआ नक़्श-ए-पा हुआ
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किस लिए वो शहर की दीवार से सर फोड़ता
क़ैस दीवाना सही इतना भी दीवाना न था
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तलाश करनी थी इक रोज़ अपनी ज़ात मुझे
ये भूत भी मिरे सर पर सवार होना था
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तेरे सीने में भी इक दाग़ है तन्हाई का
जानता मैं तो कभी दूर न होता तुझ से
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खुली फ़ज़ा में अगर लड़खड़ा के चल न सकें
तो ज़हर पीना है बेहतर शराब पीने से
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ख़ल्क़ बे-परवा ख़ुदा बंदों से तंग आया हुआ
मैं अकेला फिर रहा हूँ हश्र के मैदान में
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दीवार किस तरफ़ से बढ़े कुछ ख़बर नहीं
है बे-शुमार शहरों में जंगल घिरा हुआ
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सारी मख़्लूक़ तमाशे के लिए आई थी
कौन था सीखने वाला हुनर-ए-परवाना
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बे-हुनर हाथ चमकने लगा सूरज की तरह
आज हम किस से मिले आज किसे छू आए
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छुप छुप के कहाँ तक तिरे दीदार मिलेंगे
ऐ पर्दा-नशीं अब सर-ए-बाज़ार मिलेंगे
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शहर को छोड़ के वीरानों में आबाद तो हो
तुझे तन्हाई की आवाज़ सुनाई देगी
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तन्हाई में आ जाती हैं हूरें मिरे घर में
चमकाते हैं मस्जिद के दर-ओ-बाम फ़रिश्ते
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कभी कभी छलक उठता है आब ओ रंग उन का
वगरना दश्त तो सूखे हुए समुंदर हैं
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बहुत शर्मिंदा हूँ इबलीस से मैं
ख़ता मेरी सज़ा उस को मिली है
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आँखें न खुलें नूर के सैलाब में मेरी
हो रौशनी इतनी कि अंधेरा नज़र आए
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बस यही होगा कि दीवाना कहेंगे अहल-ए-बज़्म
आप चुप क्यूँ हैं मिरी तर्ज़-ए-नवा ले लीजिए
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तुम्हारी बज़्म से भी उठ चले हैं दीवाने
जिसे वो ढूँड रहे थे वो शय यहाँ भी नहीं
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आज तक उस की मोहब्बत का नशा तारी है
फूल बाक़ी नहीं ख़ुश्बू का सफ़र जारी है
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मंज़िल पे जा के ख़ाक उड़ाने से फ़ाएदा
जिन की तलाश थी मुझे रस्ते में मिल गए
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चाहता हूँ कि हो परवाज़ सितारों से बुलंद
और मिरे हिस्से में टूटे हुए बाज़ू आए
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डूब जाता है दमकता हुआ सूरज लेकिन
मेहंदियाँ शाम के हाथों में रचा देता है
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यूँ किस तरह बताऊँ कि क्या मेरे पास है
तू भी तो कोई रंग दिखा और देख ले
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ख़ामुशी ही में सही पर कभी इज़हार तो कर
इस क़दर ज़ब्त से सीना तिरा फट जाएगा
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टकराता है सर फोड़ता है सारा ज़माना
दीवार को रस्ते से हटाता नहीं फिर भी
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रौशन भी करोगे कभी तारीकी-ए-शब को
या शम्अ की मानिंद पिघलते ही रहोगे
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कुछ तेरे सबब थी मिरे पहलू में हरारत
कुछ दिल ने भी इस आग को भड़काया हुआ था
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हमारे पेश-ए-नज़र मंज़िलें कुछ और भी थीं
ये हादसा है कि हम तेरे पास आ पहुँचे
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चाहे अब आप भी मुझे आसेब ही कहें
ख़ुद मुंतख़ब क्या है ये उजड़ा हुआ मकाँ
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चुप के आलम में वो तस्वीर सी सूरत उस की
बोलती है तो बदल जाती है रंगत उस की
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कम नहीं है ये अज़िय्यत कि अभी ज़िंदा हूँ
अब मिरे सर पे कोई और बला क्यूँ आए
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आँख रखते हो तो उस आँख की तहरीर पढ़ो
मुँह से इक़रार न करना तो है आदत उस की
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जिस के बाइस अभी ठंडक है मिरे सीने में
भड़क उठता हूँ अगर नाम लिया जाता है
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