ज़फ़र गोरखपुरी के शेर
देखें क़रीब से भी तो अच्छा दिखाई दे
इक आदमी तो शहर में ऐसा दिखाई दे
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अपने अतवार में कितना बड़ा शातिर होगा
ज़िंदगी तुझ से कभी जिस ने शिकायत नहीं की
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मेरी इक छोटी सी कोशिश तुझ को पाने के लिए
बन गई है मसअला सारे ज़माने के लिए
छत टपकती थी अगरचे फिर भी आ जाती थी नींद
मैं नए घर में बहुत रोया पुराने के लिए
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कितनी आसानी से मशहूर किया है ख़ुद को
मैं ने अपने से बड़े शख़्स को गाली दे कर
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अभी ज़िंदा हैं हम पर ख़त्म कर ले इम्तिहाँ सारे
हमारे बाद कोई इम्तिहाँ कोई नहीं देगा
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आसमाँ ऐसा भी क्या ख़तरा था दिल की आग से
इतनी बारिश एक शोले को बुझाने के लिए
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मैं 'ज़फ़र' ता-ज़िंदगी बिकता रहा परदेस में
अपनी घर-वाली को इक कंगन दिलाने के लिए
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टैग : मुफ़्लिसी
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ख़त लिख के कभी और कभी ख़त को जला कर
तंहाई को रंगीन बना क्यूँ नहीं लेते
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समुंदर ले गया हम से वो सारी सीपियाँ वापस
जिन्हें हम जमअ कर के इक ख़ज़ाना करने वाले थे
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कैसी शब है एक इक करवट पे कट जाता है जिस्म
मेरे बिस्तर में ये तलवारें कहाँ से आ गईं
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शजर के क़त्ल में इस का भी हाथ है शायद
बता रहा है ये बाद-ए-सबा का चुप रहना
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तंहाई को घर से रुख़्सत कर तो दो
सोचो किस के घर जाएगी तंहाई
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आँखें यूँ ही भीग गईं क्या देख रहे हो आँखों में
बैठो साहब कहो सुनो कुछ मिले हो कितने साल के बाद
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कोई आँखों के शोले पोंछने वाला नहीं होगा
'ज़फ़र' साहब ये गीली आस्तीं ही काम आएगी
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ज़ेहनों की कहीं जंग कहीं ज़ात का टकराव
इन सब का सबब एक मफ़ादात का टकराव
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फ़लक ने भी न ठिकाना कहीं दिया हम को
मकाँ की नीव ज़मीं से हटा के रक्खी थी
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नहीं मालूम आख़िर किस ने किस को थाम रक्खा है
वो मुझ में गुम है और मेरे दर ओ दीवार गुम उस में
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शायद अब तक मुझ में कोई घोंसला आबाद है
घर में ये चिड़ियों की चहकारें कहाँ से आ गईं
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उसे ठहरा सको इतनी भी तो वुसअत नहीं घर में
ये सब कुछ जान कर आवारगी से चाहते क्या हो
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