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शायरी के अनुवाद1
ज़फ़र इक़बाल के शेर
जब नज़ारे थे तो आँखों को नहीं थी परवा
अब इन्ही आँखों ने चाहा तो नज़ारे नहीं थे
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हम इतनी रौशनी में देख भी सकते नहीं उस को
सो अपने आप ही इस चाँद को गहनाए रखते हैं
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टैग : हुस्न
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रास्ते हैं खुले हुए सारे
फिर भी ये ज़िंदगी रुकी हुई है
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टैग : सोशल डिस्टेन्सिंग शायरी
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उठा सकते नहीं जब चूम कर ही छोड़ना अच्छा
मोहब्बत का ये पत्थर इस दफ़ा भारी ज़ियादा है
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तुम ही बतलाओ कि उस की क़द्र क्या होगी तुम्हें
जो मोहब्बत मुफ़्त में मिल जाए आसानी के साथ
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चेहरे से झाड़ पिछले बरस की कुदूरतें
दीवार से पुराना कैलन्डर उतार दे
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टैग : नया साल
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एक ना-मौजूदगी रह जाएगी चारों तरफ़
रफ़्ता रफ़्ता इस क़दर सुनसान कर देगा मुझे
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उस को आना था कि वो मुझ को बुलाता था कहीं
रात भर बारिश थी उस का रात भर पैग़ाम था
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मुझ में हैं गहरी उदासी के जरासीम इस क़दर
मैं तुझे भी इस मरज़ में मुब्तला कर जाऊँगा
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एक दिन सुब्ह जो उट्ठें तो ये दुनिया ही न हो
है मदार अब किसी ऐसी ही ख़ुश-इम्कानी पर
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तुझ को मेरी न मुझे तेरी ख़बर जाएगी
ईद अब के भी दबे पाँव गुज़र जाएगी
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टैग : ईद
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रौशनी अब राह से भटका भी देती है मियाँ
उस की आँखों की चमक ने मुझ को बे-घर कर दिया
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सुना है वो मिरे बारे में सोचता है बहुत
ख़बर तो है ही मगर मो'तबर ज़्यादा नहीं
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हाथ पैर आप ही मैं मार रहा हूँ फ़िलहाल
डूबते को अभी तिनके का सहारा कम है
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ये हम जो पेट से ही सोचते हैं शाम ओ सहर
कभी तो जाएँगे इस दाल-भात से आगे
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वो बहुत चालाक है लेकिन अगर हिम्मत करें
पहला पहला झूट है उस को यक़ीं आ जाएगा
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वो मुझ से अपना पता पूछने को आ निकले
कि जिन से मैं ने ख़ुद अपना सुराग़ पाया था
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मैं अंदर से कहीं तब्दील होना चाहता था
पुरानी केंचुली में ही नया होना था मुझ को
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यहाँ किसी को भी कुछ हस्ब-ए-आरज़ू न मिला
किसी को हम न मिले और हम को तू न मिला
इक लहर है कि मुझ में उछलने को है 'ज़फ़र'
इक लफ़्ज़ है कि मुझ से अदा होने वाला है
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ख़ुशी मिली तो ये आलम था बद-हवासी का
कि ध्यान ही न रहा ग़म की बे-लिबासी का
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यूँ भी होता है कि यक दम कोई अच्छा लग जाए
बात कुछ भी न हो और दिल में तमाशा लग जाए
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साल-हा-साल से ख़ामोश थे गहरे पानी
अब नज़र आए हैं आवाज़ के आसार मुझे
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तिरा चढ़ा हुआ दरिया समझ में आता है
तिरे ख़मोश किनारे नहीं समझता हूँ
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बुढ़ापे से अगली ये मंज़िल है कोई
जवाँ हो गया हूँ हसीं हो गया हूँ
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हम पे दुनिया हुई सवार 'ज़फ़र'
और हम हैं सवार दुनिया पर
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बुझा नहीं मिरे अंदर का आफ़्ताब अभी
जला के ख़ाक करेगा यही शरारा मुझे
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ऐसा है जैसे आँख की पुतली के वस्त में
नक़्शा बना हुआ है किसी ख़्वाब-ज़ार का
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हवा के साथ जो इक बोसा भेजता हूँ कभी
तो शोला उस बदन-पाक से निकलता है
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मैं ज़ियादा हूँ बहुत उस के लिए अब तक भी
और मेरे लिए वो सारे का सारा कम है
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कहाँ तक हो सका कार-ए-मोहब्बत क्या बताएँ
तुम्हारे सामने है काम जितना हो रहा है
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जो यहाँ ख़ुद ही लगा रक्खी है चारों जानिब
एक दिन हम ने इसी आग में जल जाना है
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मिला तो मंज़िल-ए-जाँ में उतारने न दिया
वो खो गया तो किसी ने पुकारने न दिया
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साफ़-ओ-शफ़्फ़ाफ़ थी पानी की तरह निय्यत-ए-दिल
देखने वालों ने देखा इसे गदला कर के
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जिधर से खोल के बैठे थे दर अंधेरे का
उसी तरफ़ से हमें रौशनी बहुत आई
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अब के इस बज़्म में कुछ अपना पता भी देना
पाँव पर पाँव जो रखना तो दबा भी देना
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मेरी सूरज से मुलाक़ात भी हो सकती है
सूखने डाल दिया जाऊँ जो धोया हुआ मैं
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करता हूँ नींद में ही सफ़र सारे शहर का
फ़ारिग़ तो बैठता नहीं सोने के बावजूद
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इंकिसारी में मिरा हुक्म भी जारी था 'ज़फ़र'
अर्ज़ करते हुए इरशाद भी ख़ुद मैं ने किया
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बस एक बार किसी ने गले लगाया था
फिर उस के बाद न मैं था न मेरा साया था
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सुनोगे लफ़्ज़ में भी फड़फड़ाहट
लहू में भी पर-अफ़्शानी रहेगी
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अब उस की दीद मोहब्बत नहीं ज़रूरत है
कि उस से मिल के बिछड़ने की आरज़ू है बहुत
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रखता हूँ अपना आप बहुत खींच-तान कर
छोटा हूँ और ख़ुद को बड़ा करने आया हूँ
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ये ज़िंदगी की आख़िरी शब ही न हो कहीं
जो सो गए हैं उन को जगा लेना चाहिए
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हुस्न उस का उसी मक़ाम पे है
ये मुसाफ़िर सफ़र नहीं करता
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वो चेहरा हाथ में ले कर किताब की सूरत
हर एक लफ़्ज़ हर इक नक़्श की अदा देखूँ
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दर-ए-उमीद से हो कर निकलने लगता हूँ
तो यास रौज़न-ए-ज़िंदाँ से आँख मारती है
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आगे बढ़ूँ तो ज़र्द घटा मेरे रू-ब-रू
पीछे मुड़ूँ तो गर्द-ए-सफ़र मेरे सामने
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चूमने के लिए थाम रख्खूँ कोई दम वो हाथ
और वो पाँव रंग-ए-हिना के लिए छोड़ दूँ
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वो मक़ामात-ए-मुक़द्दस वो तिरे गुम्बद ओ क़ौस
और मिरा ऐसे निशानात का ज़ाएर होना
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