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डगमगाते कभी क़दमों को सँभलते देखा

क़ैसर ख़ालिद

डगमगाते कभी क़दमों को सँभलते देखा

क़ैसर ख़ालिद

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    डगमगाते कभी क़दमों को सँभलते देखा

    राह-ए-उल्फ़त पे मगर लोगों को चलते देखा

    नफ़रतें मिल गईं मा'सूम दिलों में अक्सर

    चाहतों को दिल-ए-सफ़्फ़ाक में पलते देखा

    हौसला था कोई मक़्सद या सलीक़ा, उस को

    वक़्त के तुंद थपेड़ों में सँभलते देखा

    जिन को पाला था बहारों ने जहाँ भर की, उन्हें

    आज़माइश की कड़ी धूप में जलते देखा

    बे-झिझक चल सका दश्त-ए-वफ़ा में अब तक

    रुकते देखा कभी उस शोख़ को चलते देखा

    सब्ज़ा-ओ-गुल पे हवा रखती है शबनम लेकिन

    फिर हवा को उन ही क़तरों को कुचलते देखा

    शहर या शहर से बाहर नहीं, अपने घर में

    हम ने अक़दार-ए-ज़माना को बदलते देखा

    आज़माइश है, इजाज़त है कि मजबूरी है

    ज़ुल्म को हम ने यहाँ फूलते-फलते देखा

    आतिश-ए-इश्क़ से बचिए कि यहाँ हम ने भी

    मोम की तरह से पत्थर को पिघलते देखा

    अपने जज़्बात तो मशहूर थे लेकिन हम ने

    थे जो हुश्यार बहुत उन को उबलते देखा

    डाल दी पैरों में उस शख़्स के ज़ंजीर यहाँ

    वक़्त ने जिस को ज़माने में उछलते देखा

    बज़ला-संजी पे बहुत नाज़ था जिन को अपनी

    हम ने उन को भी यहाँ ज़हर उगलते देखा

    रोज़ ये मश्रिक-ओ-मग़रिब का तमाशा क्यूँ है

    उगते देखा है जिसे उस को ही ढलते देखा

    गया याद वो बचपन का ज़माना 'ख़ालिद'

    जब कहीं फूल से बच्चों को उछलते देखा

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