आँचल जो ढलकता है उन का कभी शानों से
आँचल जो ढलकता है उन का कभी शानों से
पायल की सदा आ कर टकराती है कानों से
अपनी ही हलाकत का बाइ'स हुए जाते हैं
जो तीर निकलते हैं आज अपनी कमानों से
हम ने रह-ए-उल्फ़त में आ कर यही सीखा है
मंज़िल का पता लेना क़दमों के निशानों से
इक बार भी जो सुनना हम को न गवारा था
सौ बार सुना हम ने दुनिया की ज़बानों से
जिस ने कभी दुनिया की पर्वा ही नहीं की थी
वो 'नाज़' से मिलता है अब लाख बहानों से
- पुस्तक : Nuquush-e-daaG (पृष्ठ 169)
- रचनाकार : Sahir Hoshiyarpuri
- प्रकाशन : Haryana Urdu Acadami (1992)
- संस्करण : 1992
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