आरिज़-ए-गुल में झलक है शाह के रुख़्सार की
आरिज़-ए-गुल में झलक है शाह के रुख़्सार की
महाराजा सर किशन परसाद शाद
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आरिज़-ए-गुल में झलक है शाह के रुख़्सार की
ये कोई तारीफ़ है इतने बड़े सरकार की
शाह की तारीफ़ का आली से आली हो बयाँ
ये तो वो तारीफ़ है जैसे किसी दिलदार की
मिदहत-ए-शह ऐसे लफ़्ज़ों में हो ये ज़ेबा नहीं
ज़ेब दे सरदार को वो मद्ह हो सरदार की
गर किसी को वस्फ़ करना है तो लाज़िम है उसे
अद्ल की मिदहत करे या बज़्ल या तलवार की
बंदा-पर्वर आदिल-ओ-बाज़िल शजीअ-ओ-दीं-पनाह
हैं ये तारीफ़ें हमारे रहम-दिल सरकार की
बंदा-पर्वर ऐसे हैं उन का कोई सानी नहीं
मुत्तफ़िक़ है सब दकन हाजत नहीं इज़हार की
अद्ल का मिस्ल-ए-दर-तौबा है दरवाज़ा खुला
कुछ ज़रूरत ही नहीं इज़हार की तकरार की
शेर बकरी मिल के पानी पीते हैं इक घाट अब
ये हक़ीक़ी वस्फ़ है मिदहत है इस सरकार की
इस तरह के हैं सख़ी क़तरे को दरिया कर दिया
हो सके क्या मिदहत उन के दस्त-ए-दरिया-बार की
बे-तअ'स्सुब ऐसे जैसे आइना है बे-ग़ुबार
हो गई है रिश्ता-दारी सुब्हा-ओ-ज़ुन्नार की
'शाद' मेरे शाह को रक्खे हमेशा किर्दगार
उम्र-ओ-अज़्मत हो फ़ुज़ूँ या-रब मिरे सरकार की
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