आतिश-ए-इश्क़ में क्या क्या नहीं जलते देखा
आतिश-ए-इश्क़ में क्या क्या नहीं जलते देखा
दिल तो क्या चीज़ है लोहे को पिघलते देखा
क़द्र-ए-दुनिया-ए-दो-रोज़ा है फ़ना होने से
बर्ग-रेज़ि को इसी बाग़ में फलते देखा
रोज़-ए-महशर की दराज़ी की क़सम देता हूँ
कह तो दे कोई कि दिन हिज्र का ढलते देखा
कू-ए-क़ातिल में ये पकवान है ये खाना है
भूनते देखे जिगर हाथों को तलते देखा
हिज्र-ए-जानाँ में कहीं जीने से मरना बेहतर
ज़िंदगानी के मज़े को यहीं खलते देखा
परवरिश तेरी है माही-ओ-समुंदर से इनाँ
कोई पानी में कोई आग में पलते देखा
चौकड़ी भूल गए मेरे हवास-ए-ख़मसा
उस की बग्घी को सड़क पर जो निकलते देखा
मिस्ल-ए-औराक़-ए-शजर रंज-ए-ख़िज़ाँ में ऐ 'रश्क'
जिस को देखा कफ़-ए-अफ़सोस ही मलते देखा
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