अब आर-पार ध्यान की मशअ'ल कहाँ है 'ज़ेब'
रोचक तथ्य
ये ग़ज़ल बानी ने अपने अज़ीज़ दोस्त ज़ेब ग़ौरी के लिए कही थी।
अब आर-पार ध्यान की मशअ'ल कहाँ है 'ज़ेब'
गुंजान दर्द का मिरे अंदर धुआँ है 'ज़ेब'
गाड़े सियाह में है लहू की लपक न लहर
क्यूँ इस क़दर भी नक़्श-ए-नफ़स बे-निशाँ है 'ज़ेब'
क्यूँ बे-असर है मेरी दुआ सहन-ए-सुब्ह में
क्यूँ शब-कदे में मेरी फ़ुग़ाँ राएगाँ है 'ज़ेब'
क्यूँ मुट्ठी-भर सराब से नुक़सान-ए-दश्त है
क्यूँ आँख-भर नमी से चमन का ज़ियाँ है 'ज़ेब'
क्यों बादबाँ पे बोझ है इक बूँद ओस भी
किस आब-ए-ना-तवाँ में सफ़ीना रवाँ है 'ज़ेब'
क्यों बार बार मुझ से बिछड़ता है कौन है
क्यों मोड़ मोड़ मेरे लिए इम्तिहाँ है 'ज़ेब'
क्यों एक ख़्वाब रोज़ की नींदों पे है मुहीत
क्यों इक वरक़ ही मेरे लिए दास्ताँ है 'ज़ेब'
अब अर्ज़-ए-शश-जिहत है न दरिया-ए-हफ़्त-मौज
मिस्मार आँख में अदम-ए-आसमाँ है 'ज़ेब'
ता-उम्र तेरे नाम से लिक्खूँ ग़ज़ल ग़ज़ल
इक दर्द-ए-मुश्तरक का सुख़न दरमियाँ है 'ज़ेब'
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