अब हम को नहीं देखने ये ख़्वाब वग़ैरा
अब हम को नहीं देखने ये ख़्वाब वग़ैरा
हर सम्त नज़र आते हैं ज़हराब वग़ैरा
इन आँखों से पीने को मयस्सर ही नहीं तू
होना ही नहीं है हमें सैराब वग़ैरा
महफ़िल ने तिरी अपना भरम तक नहीं रक्खा
क्या ख़ाक बरतते अदब-आदाब वग़ैरा
जो दर्द सहे सारी हिसें मर गईं शायद
अब दिल मिरा होता नहीं बेताब वग़ैरा
किस सम्त को है कूच इरादा है कहाँ का
क्यों बाँध के रक्खे हैं ये अस्बाब वग़ैरा
चिलमन का कहो बहर-ए-ख़ुदा पर्दा हटा लें
अब और नहीं बाक़ी तब-ओ-ताब वग़ैरा
इस वास्ते ये ख़्वाब-नगर बस नहीं पाता
आते हैं यहाँ रोज़ ही सैलाब वग़ैरा
अब ध्यान तिरी सम्त लगा रहता है 'सादिक़'
अब मुझ से नहीं होती कोई जाब वग़ैरा
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