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अब कहाँ तख़्मीना-ए-सूद-ओ-ज़ियाँ रखता हूँ मैं

वाहिद नज़ीर

अब कहाँ तख़्मीना-ए-सूद-ओ-ज़ियाँ रखता हूँ मैं

वाहिद नज़ीर

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    अब कहाँ तख़्मीना-ए-सूद-ओ-ज़ियाँ रखता हूँ मैं

    बे-मकाँ हूँ रस्म-ओ-राह-ए-ला-मकाँ रखता हूँ मैं

    एक जन्नत-ज़ाद आँखों में समाया था कभी

    आज तक पलकों पे बार-ए-कहकशाँ रखता हूँ मैं

    क्या कहा रखता हूँ मैं रंजिश यज़ीद-ए-वक़्त से

    बात निकली है तो सुन ले आज हाँ रखता हूँ मैं

    जिस तरफ़ भी जाइए है गूँगी आँखों का हुजूम

    बे-सबब आँखों को अब रत्ब-उल-लिसाँ रखता हूँ मैं

    'इश्क़ में और जंग में जाएज़ है सब ये सोच कर

    शहर को उस के तईं कुछ बद-गुमाँ रखता हूँ मैं

    कूचा कूचा आप से मंसूब अपना कुछ नहीं

    किस क़दर बेगाना शहर-ए-जिस्म-ओ-जाँ रखता हूँ में

    गुफ़्तुगू में हो ज़बाँ मिक़राज़-ख़ू लाज़िम नहीं

    बे-ज़बानी में भी इक तौर-ए-बयाँ रखता हूँ मैं

    ठोकरों की चीज़ थी दुनिया मगर है ताज-ए-सर

    किस जगह रखना था इस को और कहाँ रखता हूँ मैं

    आसमाँ सर पर उठा लेना है मजबूरी 'नज़ीर'

    दस्तरस में बस ज़मीं पर आसमाँ रखता हूँ मैं

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