अगरचे आज भी ज़िंदा हैं लेकिन कल में रहना है
अगरचे आज भी ज़िंदा हैं लेकिन कल में रहना है
सादिया रोशन सिद्दीक़ी
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अगरचे आज भी ज़िंदा हैं लेकिन कल में रहना है
मुसलसल इर्तिक़ा के दस्ता-ए-अव्वल में रहना है
अभी हम साँस लेने के बहाने साँस रोकेंगे
कशाकश और कशिश के आहनी चुंगल में रहना है
ये दिल है कि गुल-ए-नाज़ुक अजब है इस का मुस्तक़बिल
उसे अंगार बन के दर्द की मिनक़ल में रहना है
हुई थी बर्फ़-बारी तो वहाँ कोह-ए-गिराँ हम थे
इसी बाइ'स तो अब सुलगे हुए जंगल में रहना है
हवा में ख़्वाहिश-ए-पर्दाज़ ने भी पर निकाले हैं
ज़मीन-ए-रिज़्क़ है मुझ को इसी दलदल में रहना है
शिकायत का महल क्या है मक़ाम-ए-रहम है ये तो
मिरे क़ातिल को आइंदा इसी मक़्तल में रहना है
तुम्हारी याद का सावन बरसता है बरसने दो
कि डूबूँ या तिरूँ मुझ को इसी जल-थल में रहना है
इबारत में मक़ाम-ओ-मर्तबा तो बा'द की शय है
अभी क़िर्तास पर मौहूम से जदवल में रहना है
हमेशा 'सादिया' को मौसमों का साथ देना है
कभी खद्दर पहनना है कभी मख़मल में रहना है
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