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अगरचे क़तरा हूँ और बहर से जुदा भी नहीं

वहशी कानपुरी

अगरचे क़तरा हूँ और बहर से जुदा भी नहीं

वहशी कानपुरी

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    अगरचे क़तरा हूँ और बहर से जुदा भी नहीं

    मगर ये क्या है कि मैं बहर-आश्ना भी नहीं

    ये जुस्तुजू तिरी लाई है किस जगह मुझ को

    यहाँ तो कोई तिरा सूरत-आश्ना भी नहीं

    दिखा कुछ अपनी ज़िया तू ही दाग़-ए-नाकामी

    कि अब तो जल्वा-ए-उम्मीद का पता भी नहीं

    इलाही किस का सहारा वुफ़ूर-ए-ज़ोफ़ में लूँ

    लबों पे अब तो मिरे आह-ए-ना-रसा भी नहीं

    वो एक तुम कि मिरे मुद्दआ'-ए-सर-ता-पा

    वो एक मैं कि जिसे इज़्न-ए-इल्तिजा भी नहीं

    कारवाँ का पता है रह-रवाँ का निशाँ

    अजब है राह-ए-अदम जिस में नक़्श-ए-पा भी नहीं

    ख़याल-ए-यार ही ख़िज़्र-ए-रह-ए-मोहब्बत है

    छूट जाए तो फिर कोई रहनुमा भी नहीं

    उरूस-ए-दहर दिखाती है क्यों जमाल मुझे

    मिरे जुनूँ को तो इस बुत से वास्ता भी नहीं

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