ऐ बर्क़-ए-तजल्ली फ़िक्र है ये क्या तेरा भरम रख पाऊँगी
ऐ बर्क़-ए-तजल्ली फ़िक्र है ये क्या तेरा भरम रख पाऊँगी
सूफ़िया दीपीका कौसर
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ऐ बर्क़-ए-तजल्ली फ़िक्र है ये क्या तेरा भरम रख पाऊँगी
मुश्ताक़ तो है दिल जल्वों का आँखें वो कहाँ से लाऊँगी
उश्शाक़ की महफ़िल ख़ूब मगर क्या काम मिरा जब तू ही नहीं
दामन को समेटूँगी अपने ख़ामोशी से उठ जाऊँगी
देखो तो शिकन पेशानी की एहसास करो तो उलझन का
ख़म आ भी गए काकुल में अगर काहे को इन्हें सुलझाऊँगी
सब हुस्न के आशिक़ हैं तेरे काफ़िर का भी तू वाइज़ का भी तू
बस अब ये बता ऐ हरजाई क्या मैं ही तेरा ग़म खाऊँगी
बस थोड़ी सी बारिश हुस्न-ए-अज़ल तूफ़ाँ की ज़रूरत है ही नहीं
पत्थर तो नहीं कि बह न सकूँ ख़ाशाक हूँ मैं बह जाऊँगी
इक आलम-ए-जज़्ब-ओ-मस्ती है मत पूछ तमन्ना 'कौसर' की
कुछ और ज़रा बढ़ जाए जुनूँ हर तौर तिरी हो जाऊँगी
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