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ऐसा मंज़र तो कभी देखा न था

अफ़सर जमशेद

ऐसा मंज़र तो कभी देखा न था

अफ़सर जमशेद

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    ऐसा मंज़र तो कभी देखा था

    रौशनी में भी मिरा साया था

    प्यार के बादल तो गुज़रे थे मगर

    दिल के सहरा में कोई बरसा था

    उम्र-भर पढ़ता रहा ऐसा भी ख़त

    तू ने मेरे नाम जो लिक्खा था

    जिस्म की दीवार इक थी दरमियाँ

    मैं ने पा कर भी तुझे पाया था

    यूँ तो शबनम था मगर दोस्तो

    मैं किसी भी फूल पर बिखरा था

    मौत सीने से लगा लेने को है

    ज़िंदगी ने हाल तक पूछा था

    इक हुजूम-मह-ए-वशॉं था बज़्म में

    बस वही इक चाँद का टुकड़ा था

    स्रोत :
    • पुस्तक : 1971 ki Muntakhab Shayri (पृष्ठ 105)
    • रचनाकार : Kumar Pashi, Prem Gopal Mittal
    • प्रकाशन : P.K. Publishers, New Delhi (1972)
    • संस्करण : 1972

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